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23 दिस॰ 2008

जूतों की नियती

जूतों की नियती

1.
जूतों की नियती है
पैर तले रहना
अच्छे से अच्छा ब्राण्ड भी
पैरों की शोभा तो बढाता है
पर जूते की नियती
नहीं बदल पाता है
कहते हैं जब बाप का जूता
बेटे के पैरों मे आ जाए
तो वो बेटा नहीं रहता
दोस्त बन जाता है
और किसी गुलाम का जूता
अपनी सीमाओं को तोड
मालिक के सर पर पडे
तो वो गुलाम नहीं रहता
इतिहास बन जाता है

2.

अब देखना न्या कानून बनाया जाएगा
भरी महफिल मे नंगे पांव जाया जाएगा
भारत का इतिहास पुराना है
अब जाकर उसको पहिचाना है
भारत मे कितने बडे विद्वान थे
अरे वो तो पहले से ही सावधान थे

जूते अन्दर ले जाने की मनाही थी
पर बात हमने यूँ ही उडाई थी
अब फिर हमारी सभ्यता को अपनाया जाएगा
देखना भरी महफिल में नंगे पांव जाया जाएगा


**********************************

22 दिस॰ 2008

असली नकली चेहरा

असली नकली चेहरा

चेहरे पे चेहरा लगाते हैं लोग
सुना था
पर आज अपना ही चेहरा
नहीं पहचान पाती मैं
जब भी जाओ
आईने के सामने
ढूँढ़ना पड़ता है अपना चेहरा
न जाने कितने चेहरों
का नकाब ओढ़ रखा है
एक-एक कर जब सम्मुख
आते हैं
अपना परिचय करवाते हैं
तो सच मे ऐसे खूँखार चेहरों से
मुझे डर लगता है
कभी चाहती हूँ
मिटा दूँ इन सभी को
और ओढ़ लूँ केवल अपना
वास्त्विक चेहरा
न जाने क्यों उसी क्षण लगते हैं
सभी के सभी चेहरे अपने से
मुझे इनसे प्यार नहीं
ये सुन्दर भी नहीं
असह हैं मेरे लिए
फिर भी सहती हूँ
क्योंकि
यह मेरी कमजोरी नहीं
मजबूरी हैं
घूमने लगते हैं मेरे सम्मुख
वो सभी चेहरे
जिनको मैं जी-जान से चाहती हूँ
जिनके लिए मैंने अपनाए है
इतने सारे चेहरे
वो चेहरे, जिनकी एक मुस्कान
की खातिर
हर बार लगाया मैंने नया चेहरा
और भूलती गई
अपने चेहरे की पहचान भी
आज उस मोड़ पर हूँ
कि यह चेहरे हटा भी दूँ
असली चेहरे को अपना भी लूँ
तो वो चेहरा सबको
नकली ही लगेगा
मैं खुश तो नहीं
सन्तुष्ट हूँ
कि नकली चेहरा देखकर
मुस्कुरा देता है कोई

14 दिस॰ 2008

आतंकवाद और आतंकवादी की माँ

आतंकवाद और आतंकवादी की माँ

चाँद सा सुत जन्मा
माँ खुश
गोदी मे लाल की किलकारी
लगी बडी प्यारी
दिख गए सूनी आँखों मे
न जाने कितने ही सपने
बडा होगा तो
सहारा बन जाएगा
उसकी सौतन भूख को भगाएगा
मेरा नाम भी चमकाएगा
पर सौतन थी कि
बदले की आग मे भडकी थी
उसने भी अपनी जिद्द पकडी थी
सौतेली ही सही
मै इसकी माँ कहलाऊँगी
और दुनिया को दिखाऊँगी
इसकी माँ के साथ मेरा नाम भी आएगा
सौतेला ही सही
मेरा सुत भी कहलाएगा
मेरे लिए यह खून पिएगा
दूसरों को मार के जिएगा
माँ का दूध नहीं इसके सर
खून चढ के बोलेगा
खुद रुलेगा दूसरों को रोलेगा
जननी की लाचारी थी
सौतन जो अत्याचारी थी
चाह कर न बचा पाई अपना ही जाया
सौतेली माँ ने ऐसा भरमाया
हाथ मे हथियार थमा दिया
और सौतेले सुत को
आतंकवादी बना दिया
खुद आतंकवाद की माँ बन बैठी
न जाने कितनी ही लाशें
उसके सम्मुख लेटीं
सौतेले सुत ने नाम चमका दिया
स्वंय को आतंकवादी बना दिया
जननी का कर्ज़ ऐसा चुकाया कि
उसकी कोख पर कलंक लगा दिया
सौतेली माँ को जिता दिया
और अपनी माँ को
आतंकवादी की माँ बना दिया

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4 दिस॰ 2008

हे कान्हा अब फिर से आओ

हे कान्हा अब फिर से आओ

हे कान्हा अब फिर से आओ
आकर भारत भू बचाओ
अपना दिया हुआ वचन निभा दो
आकर दुनिया को दिखला दो
आज तुम्हे हर आँख निहारे
हर जन की आत्मा पुकारे
एक कन्स के हेतु गिरधर
आए थे तुम भारत भू पर
राक्षसों का करके सफाया
तुमने अपना धर्म निभाया
देखो यह आतंकी रूप
कितना उसका चेहरा कुरूप
फैला रहे आतंकवाद
करने भारत भू बर्बाद
मारें निहत्थे लोग नादान
नही सुरक्षित किसी की जान
जिस धरती पर तुम खुद आए
गीता के उपदेश सुनाए
जिस भूमि का हर कण पावन
आ रहे वहाँ आतंकी रावण्
भरे हुए अब सबके नैन
नही किसी के मन मे चैन
हे दाऊ के भैया आओ
दाऊद के भाई समझाओ
नही तो समझाओ हर अर्जुन
मार मुकाएँ हर दुर्योधन
भेजे बहुत ही शान्ति दूत
पर न माने कोई कपूत
अहंकार वश मर जाएँगे
खत्म वो कुनबा कर जाएँगे
पर न समझेंगे यह बात
सत्य तो है हमारे साथ
सच्चाई की होगी जीत
नही फलेगी बुरी कोई नीत
दुश्मन के घर हम जाएँगे
अपना झण्डा फहराएँगे
हम भारत माँ की सन्तान
माँ के लिए दे देन्गे जान
करना कान्हा बस इतना करम
नही खत्म हो मानव धर्म
तुम सत्य के रथ पर रहना
हर अर्जुन को बस यह कहना
अपना सच्चा करम निभाओ
मन मे आशंका न लाओ
बस तुम इतना करो उपकार
न हों हमारे बुरे विचार
बुरा नहीं कोई इन्सान
सबमे बसता है भगवान
बुराई को हम जड से मिटाएँ
फर्ज़ की खातिर हम मिट जाएँ
तुम बस सत्य रथ को चलाना
अपना दिया हुआ वचन निभाना
देता है इतिहास गवाही
जब भी कोई हुई तबाही
सत्यवादी तब-तब कोई आया
आकर अत्याचार मिटाया
फिर से अत्याचार मिटाओ
हे कान्हा अब फिर से आओ

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1 दिस॰ 2008

शहीदों के घर........?

शहीदों के घर..............?

शहीदों के घर कुत्ते नहीं जाते
क्योंकि वहां पावन भावनाओं की
गंगा बहती है
और बहती गंगा मे
अगर हाथ धोने जाएँ भी
तो उन्हें कोई घुसने नहीं देता

आज़ाद भारत की समस्याएँ

यह कविता मैने तीन साल पहले लिखी थी त्रासदी यह है कि आज भीसमस्याएँ ज्यों की त्यों सुरसा की भान्ति मुँह फाडे खडी हैं

आज़ाद भारत की समस्याएँ
भारत की आज़ादी को वीरों ,
ने दिया है लाल रंग
वह लाल रंग क्यों बन रहा है ,
मानवता का काल रंग

आज़ादी हमने ली थी,
समस्याएँ मिटाने के लिए
सब ख़ुश रहें जी भर जियें,
जीवन है जीने के लिए

पर आज सुरसा की तरह ,
मुँह खोले समस्याएँ खड़ी
और हर तरफ़ चट्टान बन कर,
मार्ग में हैं ये अडी

अब कहाँ हनु शक्ति,
जो इस सुरसा का मुँह बंद करे
और वीरों की शहीदी ,
में नये वह रंग भरे

भूखमरी ,बीमारी, बेकारी ,
यहाँ घर कर रही
ये वही भारत भूमि है,
जो चिड़िया सोने की रही

विद्या की देवी भारती,
जो ग्यांन का भंडार है
अब उसी भारत धरा पर,
अनपढ़ता का प्रसार है

ज्ञान औ विज्ञान जग में,
भारत ने ही है दिया
वेदो की वाणी अमर वाणी,
को लुटा हमने दिया

वचन की खातिर जहाँ पर,
राज्य छोड़े जाते थे
प्राण बेशक तयाग दें,
पर प्रण न तोड़े जाते थे

वहीं झूठ ,लालच ,स्वार्थ का है,
राज्य फैला जा रहा
और लालची बन आदमी ,
बस वहशी बनता जा रहा

थोड़े से पैसे के लिए,
बहू को जलाया जाता है
माँ के द्वारा आज सुत का,
मोल लगाया जाता है

जहाँ बेटियों को देवियो के,
सद्रश पूजा जाता था
पुत्री धन पा कर मनुज ,
बस धन्य -धन्य हो जाता था

वहीं पुत्री को अब जन्म से,
पहले ही मारा जाता है
माँ -बाप से बेटी का वध,
कैसे सहारा जाता है ?

राजनीति भी जहाँ की,
विश्व में आदर्श थी
राम राज्य में जहाँ
जनता सदा ही हर्ष थी

ऐसा राम राज्य जिसमे,
सबसे उचित व्यवहार था
न कोई छोटा न बड़ा ,
न कोई आत्याचार था

न जाति -पाति न किसी,
कुप्रथा का बोलबाला था,
न चोरी -लाचारी , जहा पर,
रात भी उजाला था

आज उसी भारत में ,
भ्रषटा चार का बोलबाला है
रात्रि तो क्या अब यहाँ पर,
दिन भी काला काला है

हो गई वह राजनीति ,
भी भ्रष्ट इस देश में
राज्य था जिसने किया ,
बस सत्य के ही वेश में

मज़हब ,धर्म के नाम पर,
अब सिर भी फोड़े जाते हैं
मस्जिद कहीं टूटी ,कहीं,
मंदिर ही तोड़े जाते हैं

अब धर्म के नाम पर,
आतंक फैला देश में
स्वार्थी कुछ तत्व ऐसे,
घूमते हर वेश में

आदमी ही आदमी का,
ख़ून पीता जा रहा
प्यार का बंधन यहाँ पर,
तनिक भी तो न रहा

कुदरत की संपदा का भारत,
वह अपार भंडार था
कण-कण में सुंदरता का ,
चहुँ ओर ही प्रसार था

बख़्शा नहीं है उसको भी,
हम नष्ट उसको कर रहे
स्वार्थ वश हो आज हम,
नियम प्रकृति के तोड़ते

कुदरत भी अपनी लीला अब,
दिखला रही विनाश की
ऐसा लगे ज्यों धरती पर,
चद्दर बिछी हो लाश की

कहीं बाढ़ तो कहीं पानी को भी,
तरसते फिरते हैं लोग
भूकंप,सूनामी कहीं वर्षा हैं,
मानवता के रोग

ये समस्याएँ तो इतनी,
कि ख़त्म होती नहीं
पर दुख तो है इस बात का,
इक आँख भी रोती नहीं

हम ढूंढते उस शक्ति को,
जो भारत का उधार करे
और भारतीय ख़ुशहाल हों,
भारत के बन कर ही रहें
भारत के बन कर ही रहें

30 नव॰ 2008

न जाने क्यों......?

न जाने क्यों......?


मन आहत है
आँखे नम
कितना पिया जाए गम
नहीं देखा जाता
बिछी हुईं लाशों का ढेर
नहीं सहन होती माँ की चीख
नहीं देखी जाता
छन-छनाती चूडियों का टूटना
नहीं देखा जाता
बच्चों के सर से उठता
माँ-बाप का साया
नहीं देखी जाती
माँ की सूनी गोद
नहीं देखी जाती
किसी बहन की कुरलाहट
न जाने कब थमेगा
यह मृत्यु का नर्तन
यह भयंकर विनाशकारी ताण्डव
न जाने कितनी
मासूम जाने लील लेगा
और भर जाएगा
पीछे वालों की जिन्दगी में अन्धेरा
मजबूर कर देगा जिन्दा लाश बनकर
साँस लेने को
न जाने क्यों......

27 नव॰ 2008

जान की होली

जान की होली

बम धमाकों की आवाज को
मुनिया
दीवाली के पटाखों का
शोर समझी
और
जिज्ञासु भाव से माँ के
गिर्द मँडराते हुए बोली....
यह कौन सा त्योहार है माँ
दीवाली तो नहीं.....?
माँ , खामोश निरुत्तर
आँचल मे छुपाती मुनिया की
जिज्ञासा नही शान्त कर पाई
बस
गमगीन हो आँसु पी गई
और मुनिया
माँ के भाव तो नही समझी
बस दुबल गई
माँ के आँचल मे
और फिर बाल-स्वभाव वश
बोलो न माँ.....
यह किसका धर्म है
जो हमारा नही....?
माँ खामोश
एक्टक देखती नन्ही मुनिया को
चिपका लेती है सीने से
पर मुनिया है कि मानती ही नहीं
बोलो न माँ
इन पटाखों से
सब डरते क्यों हैं...?
माँ खामोश....
झर-झर झरते आँसु
खामोश इन्तजार मे
मुनिया के प्रश्न तीर की भान्ति चुभ गए
सीने की अनन्त गहराई मे
................
................
और अब
इन्तजार खत्म
सदा-सदा के लिए खत्म
तीन रँगों मे लिपटा
चार जवानों के कन्धे पर ताबूज
और माँ
जो अब तक खामोश थी
बरस पडी नन्ही मुनिया पर
मिल गई तुम्हें शान्ति
हो गई तस्सली....
देख....
देख इसको
और पूछ इससे....
कौन सा त्योहार मनाया इसने
अब मुनिया खामोश
जैसे समझ गई बिन बताए
सारी ही बातें
कि
यह मौत का त्योहार है
आतंकवाद का धर्म है
हम नही मनाते यह त्योहार
क्योंकि......
यह दीवाली नही....
होली है .....
जान की होली

*****************************

चित्र साभार हिन्दयुग्म से

26 नव॰ 2008

टीस

टीस

हृदयासागर पर
भावनाओ के चक्रवात को
चीरती निकलती है
विनाशकारी लहर
बह जाती
अनजान पथ पर
तेज नुकीली धार बन कर
मापती अनन्त गहराई
बिना किनारे और
मन्जिल के
चलती बेप्रवाह
कही भी तो
नही मिलती थाह
या फिर
चीरती है
काँटे की भान्ति
मन-मत्सय के सीने को
निकलती है बस
आह भरी चीस
भर जाती हृदय मे टीस
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25 नव॰ 2008

भूख की अर्थी

भूख की अर्थी

सफैद कपडे से सजी अर्थी पर
पुष्प वर्षा ,ढोल नगाडे
फिल्मी गानो की
धुन पर नाचते लोग
जा रहे मरघट की ओर
अनहोनी
सचमुच अचम्भित
करने वाली घटना
मरघट और नाच गाना
जहा होता है बस रोना-रुलाना
???????????????
होगा कोई अमीरजादा
पी होगी ज्यादा
मर गया
परिवार को आज़ाद कर गया
या फिर होगा कोई सठियाया
मरते-मरते होगा
अपना फरमान सुनाया
या फिर होगा कोई अत्याचारी
फैलाई होगी सामाजिक बीमारी
आज मर गया
लोगो को खुश कर गया
चलो जो भी था???????
धरती का बोझ कम कर गया
कौन था ?जान लेते है....
जिज्ञासा , शान्त कर लेते है
पता चला
कोई नामी किसान था
कभी उसका भी नाम था
बेटे को पढाना
उसका अरमान था
इसी चक्कर मे
बन गया मजदूर
रोका था उसे
न करो यह कार्य क्रूर
पढ-लिख कर बेटा क्या कमाएगा
नही पढेगा , तो तेरा हाथ बँटाएगा
कोई बात न मानी
बस अपनी ही जिद्द ठानी
पूरी भी की
और बेटे ने डिग्री भी ली
सारी उम्र पढाई मे गाली
बाप किसान से बन गया माली
और बेटा
कागज का टुकडा
हाथ मे थामे
दर-दर भटकता था
माँ-बाप को भी अटकता था
पेट मे भूख करती थी नर्तन
बजते थे घर मे खाली बर्तन
लान्घी तो थी उसने चारदीवारी
पर आगे पसरी थी बेरोजगारी
नही जानता था जेब काटना
और न अपना दुख बाँटना
स्वाभिमानी था
पढाई मे उसका न कोई सानी था
पर न तो बची थी दौलत
न थी इतनी शौहरत
कि उसे कोई काम मिल जाता
भूखे मरते थे
बस पानी ही पीते थे
बेटा खुदकुशी कर गया
बाप भूख से मर गया
माँ , बाप के साथ होगी सती
मिल जाएगी तीनो को गति
बेटा जवान था
माँ -बाप का अरमान था
उसका ब्याह रचाएँगे
बैण्ड बाजा बजाएँगे
जीते जी तो इच्छा रही अधूरी
अब कर देते है पूरी
उसने मौत को गले लगाया है
उसी को दुल्हन बनाया है
अब भूखे न रहेन्गे
कोई दर्द न सहेन्गे
मर कर समस्या हल कर दी
यह निकल रही है भूख की अर्थी

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24 नव॰ 2008

कविता के लिए वध

कविता के लिए वध
कहते है....?
कविता कवि की मजबूरी है
उसके लिए वध जरूरी है
जब भी होगा कोई वध
तभी मुँह से फूटेगे शब्द
दिमाग मे था बालपन से ही
कविता पढने का कीडा
न जाने क्यूँ उठाया
कविता लिखने का बीडा
किए बहुत ही प्रयास
पर न जागी ऐसी प्यास
कि हम लिख दे कोई कविता
बहा दे हम भी भावो की सरिता
कहने लगे कुछ दोसत
कविता के लिए तो होता है वध
कितने ही मच्छर मारे
ताकि हम भी कुछ विचारे
देखे वधिक भी जाने-माने
पर नही आए जजबात सामने
नही उठा मन मे कोई ब्वाल
छोडा कविता लिखने का ख्याल
पर अचानक देख लिया एक नेता
बेशर्मी से गरीब के हाथो धन लेता
तो फूट पडे जजबात
निकली मुँह से ऐसी बात
जो बन गई कविता
बह गई भावो की सरिता
सुना था जरूरी है
कविता के लिए वध
फिर आज क्यो
निकले ऐसे शब्द ?
फिर दोसतो ने ही समझाया
कविता फूटने का राज बताया
नेता जी वधिक है साक्षात
वध किए है उसने अपने जजबात
जिनको तुम देख नही पाए
और वो शब्द बनकर कविता मे आए

*********************

23 नव॰ 2008

माँ की परिभाषा

माँ की परिभाषा


माँ जो ममता की मूर्ति है
माँ जो सन्स्कारो की पूर्ति है
माँ जो धरती का स्वर्ग है
माँ जो साक्षात ईश्वर है
माँ जो मीठी मिठाई है
माँ हर दर्द की दवाई है
माँ बुराई के लिए जहर है
माँ जिसका स्पर्श ही अमृत है
माँ जिसके हाथो मे शक्ति है
माँ जो प्रेम की भक्ति है
माँ जो खुली किताब है
माँ जिसके पास हर जवाब है
माँ जो सागर से भी गहरी है
माँ सूर की साहित्य लहरी है
माँ राम चरित मानस है
माँ जो सूखे मे पावस है
माँ जो वैदो की वाणी है
माँ गन्गा ,यमुना,सरस्वती
की त्रिवेणी है
माँ लक्ष्मी गौरी वाग्देवी है
माँ जो स्वयम सेवी है
माँ ही सभ्याचार है
माँ ही उच्च विचार है
माँ ब्रह्मा , विष्णु ,महेश है
माँ के बाद कुछ न शेष है
माँ धरती ,माँ आकाश है
माँ फैला हुआ प्रकाश है
माँ सत्य ,शिव ,सुन्दर है
माँ ही मन मन्दिर है
माँ श्रद्धा है ,माँ विश्वास है
माँ ही एकमात्र आस है
माँ ही सबसे बडी आशा है
माँ की नही कोई परिभाषा है
माँ तुम्हारी नही कोई परिभाषा है


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20 नव॰ 2008

आँखें (चन्द क्षणिकाएँ )

आँखें (चन्द क्षणिकाएँ )

यह नहाई हुई गीली पलकें
कराती है अहसास कि
इनके पीछे है
विशाल सिन्धु
खारा जल
जो नहीं कर सकता तृप्त
नहीं बुझती इससे प्यास
यह तो बस बहता है
धार बन कर बेप्रवाह
२.
आज तृप्त है चक्षु
पिघला कर
उस चट्टान सरीखी ग्रन्थि को
जो न जाने कब से
पड़ी थी बोझ बन कर मन पर
३.
आज जुबान बन्द है
बस बोलते है नयन
सारे के सारे शब्द बह गए
अश्रु बन कर
कर गए प्रदान अपार शान्ति
४.
आज से पहले आँखों में
इतनी चमक न थी
इससे पहले यह ऐसे नहाई न थी
५.
आज पहली बार
अपना स्वाद बदला है
नमकीन अश्रुजल पीने की आदत थी
इनको बहा कर अमृत रस चखा है
६.
नेत्रों में चमकते
सीप में मोती सरीखे आँसू
ओस की बूँद की भांति
गिरते सूने आँचल में
उड जाते खुले गगन में
कर जाते कितना ही बोझ हल्का

19 नव॰ 2008

जिन्दगी है तो जियो

जिन्दगी है तो जियो

थक गई हूँ सुनते-सुनते
मुक्ति की परिभाषा
मुक्ति दुखोँ से ,सँसार से
जिम्मेदारियोँ से , घर-बार से
परन्तु
नही चाहिए मुझे मुक्ति
नही चाहत है मुझे
मिलने की
किसी अज्ञात से
नही चाहत है मुझे
बूँद की भान्ति
सागर मे समा जाने की
चाहत है मुझे
अपने अस्तित्व की
नए रूप धारने की
सब कुछ जानने की
भले ही बनूँ मरणोपरान्त्
गली का कुत्ता
भले ही भौन्कु
राहगीरो पर
परन्तु होगा मेरा अपना अस्तित्व
होगी अपनी सोच
जिन्दगी है तो जियो
अपने लिए
अपनो के लिए

*********************************

4 नव॰ 2008

मेरी आवाज़




दो-शब्द

भाषा भावों की वाहिका होती है |अपनी काव्य पुस्तक
"मेरी आवाज़" में भाषा के माध्यम से एक लघु प्रयास
किया है भावों को व्यक्त करने का जो कभी हमें
खुशी प्रदान करते हैं,तो कभी गम |कभी हमें सोचने पर
मजबूर कर देते हैं और हम अपने आप को असहाय सा
महसूस करते हैं |यह पुस्तक मेरे माता-पिता को एक छोटा
सा उपहार है जिन्होने मुझे आवाज दी और "मेरी आवाज"
उभर कर आई |आशा करती हूँ पाठकों को मेरा यह
लघु प्रयास अवश्य पसंद आएगा |

सीमा सचदेवा



******************************


मेरी आवाज़

अनुक्रम:-
१.वंदना
२.जीवन एक कैनवस
३.हर पल मरती जिन्दगी
४.परछाई
५.माँ (चन्द क्षणिकाएँ)
६.आँखे
७.जब तक रहेगा समोसे मे आलू
८.हुआ क्या जो रात हुई
९.आँसू
१०.आदर्शवादी
११.समाज के पहरेदार
१२.एक सपना
१३.वह सुंदर नहीँ हो सकती
१४.झोंपड़ी में सूर्यदेव
१५.आज का दौर
१६.रक्षा-बंधन
१७.साइकिल
१८.रेत का घरौंदा
१९.आज़ाद भारत की समस्याएँ
२०.किस्मत का खेल
२१.जमाना अब भी वही है
२२.धरती माता
२३.वह मुस्काता सुंदर चेहरा
२४.22स्वीं सदी मे...........?
२५.किरण या साया
२६.चुनाव अभियान
२७.चलो हम भी चलते है
२८.कुत्तो की सभा
२९.टीस
३०. तो अच्छा है..........?
३१.कुत्तो का भोजन
३२.क्या खोया क्या पाया
३३.मन्दिर के द्वार पर
३४.प्यार का उपहार
३५.अन्धो का आइना
३६.हे कविते
३७.अगर हम गीतकार होते
३८.मुझे जीने दो
३९.कौन करता है खुदकुशी.....?
४०.हे भगवान
४१.हे भगवान
४२.औरत
४३.चरित्रहीन
४४.बूँद
४५.ऋतुओ की रानी
४६.आन बसो कान्हा
४७.क्षितिज के उस पार
४८.प्यार मे तो शूल भी फूल
४९.कविता मे सिन्धु
५०.क्या लिखुँ....?
५१.जीवन के रास्ते
५२.मृगतृष्णा
५३.नारी शक्ति
५४.अध्यापक दिवस
५५.कलम है कि रुकती नही
५६.सडक ,आदमी और आसमान
५७.तीसरी आँख
५८.होली
५९.आज़ादी की गुहार( तिब्बती लोगो के लिए)
६०.मुसाफिर
*********************************

१.हमको ऐसा वर दो.....

हमको ऐसा वर दो हे माँ वीणा वादिनी,
हम रहें करम में निरत,भक्ति में मस्त;
कार्य सिधह्स्त,गाएं जीवन की रागिनी|
हमको ऐसा........................................|
तू सरला,सुफला है माँ,माधुर मधु तेरी वाणी,
विद्या का धन हमको भी दो, हे माँ विद्या दायिनि |
हमको ऐसा...................................................|
हे शारदे,हँसासीनी,वागीश वीणा वादिनी,तुम
ग्यांन की भंडार हो,हे विश्व की सँचालिनि |
हमको ऐसा............................................|

***************************

२.जीवन एक कैनवस

दिन -रात,सुख-दुख ,खुशी -गम
निरन्तर
भरते रहते अपने रन्ग
बनती -बिगडती
उभरती-मिटती तस्वीरो मे
समय के साथ
परिपक्व होती लकीरो मे
स्याह बालो मे
गहराई आँखो मे
अनुभव से
परिपूर्ण विचारो मे
बदलते
वक़्त के साथ
कभी निखरते
जिसमे
स्माए हो
रन्ग बिरन्गे फूल
कभी
धुँधला जाते
जिस पर
जमी हो हालात की धूल
यही
उभरते -मिटते
चित्रो का स्वरूप
देता है सन्देश
कि
जीवन है एक कैनवस
*************************************
३.हर पल मरती जिन्दगी


भूख से बेहाल
फटे हाल
नन्गा तन
सूने नयन
सूखे हुए
माँस के अन्दर
झान्कती खोखली हड्डियाँ
करती है
ब्यान अपने आप मे
भूखमरी की दास्तान
...............
...............
कभी न
नसीब हुआ
भरपेट खाना
घास
और पत्तो मे
खोजा खजाना
देखा
केवल अभाव
नही
किसी से लगाव
न तो
पाली कोई चाहत
न ही
मन मे
उठी कोई हसरत
मिली
केवल धिक्कार
नही मिला
कोई अधिकार
नोच
लेना चाहता है
हर कोई उसको
झपट
लेना चाहता है
माँस के लुथडे को
चील की भान्ति
देखता हर कोई
भूखी निगाहो से
और
वो रह जाता है
बस
अपना सर पटक कर
कि
मै कोई मरी हुई
माँस की लोथ नही
जिस पर
टिकी है लालची निगाहे
उठती है
मेरे मन मे भी आहे
मै हूँ
जिन्दा लाश
जिन्दगी से हताश
करता हूँ
केवल एक
रोटी की बन्दगी
वो भी
नही मिलती
बस
हर पल
मरती है जिन्दगी



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४.परछाई


घूरती हुई क्रूर निगाहे
झपट लेने को लालायित
पसरा केवल स्वार्थ
दुर्विचार,आडम्बर
नही बचा इससे कोई घर
बोई थी प्यार की फसल
मिला नफरत का फल
सच्चाई की जमीन को
रौन्दता झूट का हल
मिठास मे छिपा
जानलेवा जहर
भूखी निगाहो मे लालच का कहर
रह गया केवल अकेलापन
कही भी तो नही अपनापन
यह लम्बा सफर काटना अकेले
तन्ग डगर टेढे-मेढे रास्ते
न जाने चलना है
इनपर किनके वास्ते
इधर-उधर आजु-बाजु
कोई भी तो नही साथ
तन्हाई, सन्नाटा सूनापन
दिन भी लगे काली रात
छाया मन मस्तिष्क पर
घोर अँधकार
मिट चुके सारे विचार
पर अचानक
सन्नाटे को चीरती एक ध्वनि
जैसे बोल उठी हो अवनि
कहाँ हो अकेले.......?
यहाँ तो हर कदम पर मेले
देखो मेरी गोदि मे
और देखो मेरे प्रियतम की छाया
जो बनी रहती है सब पर
नही तो देखो अपना ही साया
जो सुख की शीतलता मे भले ही
नज़र न आए
पर गम की तीखी धूप मे
कभी आगे तो कभी पीछे
हर पल साथ निभाए
नही है केवल तन्हाई
तुम्हारे पास है
तुम्हारी अपनी परछाई


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५.माँ (बारह क्षणिकाएँ)


आजकल माँ
बहुत बतियाती है
जब भी फोन करो
आस-पडोस की भी बाते सुनाती है
२.
न जाने क्यो लगता है
माँ की आँखे नम है
उसे कही न कही
कुछ खो देने का गम है
३.
सुबह सबसे पहले उठ कर
सारा काम निपटाती है
मेरी काम वाली आई कि नही
इसकी चिन्ता लगाती है
४.
कहती है आजकल
पेट खराब है
और मेरी आवाज़ को
हाजमौला बताती है
५.
लगता है अभी आएगी
ले लेगी मुझे गोदि मे
और फिर प्यार से
मेरे सर मे उन्गलियाँ चलाएगी
६.
कई बार
चुप सी रहती है
मुँह से कुछ नही कहती
पर आँखे बहुत कुछ बोलती है
७.
हर रोज
मुझे फोन लगाती है
खाना खाया कि नही
याद दिलाती है
८.
अपनी पीडा के आँसु
पलको मे छुपा कर
मेरी पीडा मुझसे उगलवाती है
९.
खुद तो सारी उम्र
न जाने कितना ही त्याग किया
मेरे छोटे से समझौते को
बलिदान बताती है
१०.
आजकल माँ
सपनो मे आकर
मुझे लोरी सुनाती है
हर जख्म को सहलाती है
११
सबसे प्यारी
सबसे अलग
ममता की मूर्त्त
माँ तुम ऐसी क्यो हो ?
१२.
माँ आजकल
तुम बहुत याद आती हो
जी चाहता है अभी पहुँच जाऊँ
इतना स्नेह जताती क्यो हो ?

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६.आँखे(चन्द क्षणिकाएँ)

१.
यह नहाई हुई गीली पलके
कराती है अह्सास कि
इनके पीछे है
विशाल सिन्धु
खारा जल
जो नही कर सकता तृप्त
नही बुझती इससे प्यास
यह तो बस बहता है
धार बन कर बेप्रवाह
२.
आज तृप्त है चक्षु
पिघला कर
उस चट्टान सरीखी ग्रन्थि को
जो न जाने कब से
पडी थी बोझ बन कर मन पर
३.
आज जुबान बन्द है
बस बोलते है नयन
सारे के सारे शब्द बह गए
अश्रु बन कर
कर गए प्रदान अपार शान्ति
४.
आज से पहले आँखो मे
इतनी चमक न थी
इससे पहले यह ऐसे न्हाई न थी
५.
आज पहली बार
अपना स्वाद बदला है
नम्कीन अश्रुजल पीने की आदत थी
इनको बहा कर अमृत रस चखा है
६.
नेत्रो मे चमकते
सीप मे मोती सरीखे आँसु
औस की बूँद की भान्ति
गिरते सूने आँचल मे
उद् जाते खुले गगन मे
कर जाते कितना ही बोझ हल्का

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७.जब रहेगा समोसे मे आलू


रात को सोते हुए
अजीब सा ख्याल कोंध आया
और मैने ................
मिनी स्करट पहने हीर को रोते हुए पया
मैने पूछा ! यह अश्रुजल क्यों है तुम्हारी आँखों में?
तुमतो एक हो लाखों में
तुम्हे प्यार तो दुनिया भर का मिला है
तुम को तो प्यार की दुनिया में
अच्छा ख़ासा नाम भी मिला है
अमर हो तुम दोनो सदा के लिए
मरे इक्कठे , जिए इक्कठे जिए
अब तुमको कोई अलग नही कर सकता है
फिर क्यों रोती हो तुम ?
तुम्हारा प्यार कभही नही मर सकता
हीर बोली! बहन तुम सच्च कहती हो
पर मैं पूछती हूँ तुमसे,
किस दुनिया मे रहती हो ?
मैने जब पूछा था रांझा से.......
तुम्हे मुझसे प्यार है कितना?
बोला था सर उठाकर गर्व से....
समोसे मे आलू की उम्र के जितना
मैने कहा ! हाँ सुना तो है मैने भी
कुछ ऐसा ही गाना
पर मुझे आता नही गुन-गुनाना
उसका भी भाव तो कुछ ऐसा ही था
और उसमें भी आलू और समोसा ही था
हीर झल्ला कर बोली...........
सुना है तो पूछती क्यों हो?
दुखती रग पर हाथ रखती क्यों हो?
मेरी समझ मे कुछ ना आया
और फिर से हिम्मत करके मैने हीर को बुलाया
इस बार हीर को गुस्सा आया
फिर भी उसने मेरी तरफ सर घुमाया
मैने कहा ! आलू और समोसे का गाने मे
केवल शब्दों का सुमेल बनाया
परन्तु मेरी समझ में अभी तक यह नही आया
कि तुम्हारे नेत्रों में अश्रुजल क्यों भर आया?
अब हीर लगी फूट-फूट कर रोने
और आँसू से अपने सुनदर मुख को धोने
अपने रोने का कारण उसने कुछ यह बताया
बहन आज हमने एक रेस्टोरेंट में समोसा ख़ाया
हलवाई ने समोसा बिना आलू के बनाया
और तब से रांझा मुझे नज़र नहीं आया
कदम की आहट से हमने सर घुमाया
मॉडल के साथ ब्रांडेड जींस पहने
रांझा को खड़ा पाया
अब मुझे भी थोड़ा गुस्सा आया
और रांझा को मैने भी कह सुनाया
प्रेमिका को रुलाते हो
, तुम्हे शर्म नही आती
एक को छोड़ कर दूसरी को घुमाते हो
यह बात तुम्हे नही भाती
कैसी शर्म ? रांझा बोला .........
मैं आदमी नही हूँ चालू
मैने कहा था हीर से........
मैं तब तक हूँ तेरा ,
जब तक है समोसे मे आलू
जब आलू के बिना समोसा है बन सकता
तो मैं अपनी हीर क्यू नही बदल सकता ?
यह समोसे कि नई तकनीक ने है कमाल दिखाया
और मुझे अपनी नई हीर से मिलाया
इतने मे बाहर के शोर ने मुझे जगाया
और सामने सच में
ऐसी हीरों और रांझो को पाया
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पूछना है मुझे ऐसे प्यार के परिंदो से
कुछ ऐसे ही सामाजिक दरिंदों से
क्या यही रह गई है भारत कि सभ्यता?
और क्या यही है प्यार कि गाथा ?



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८. हुआ क्या जो रात हुई

हुआ क्या जो रात हुई,
नई कौन सी बात हुई |
दिन को ले गई सुख की आँधी,
दुखों की बरसात हुई |
पर क्या दुख केवल दुख है,
बरसात भी तो अनुपम सुख है |
बढ़ जाती है गरिमा दुख की,
जब सुख की चलती है आँधी |
पर क्या बरसात के आने पर,
कहीं टिक पाती है आँधी|
आँधी एक हवा का झोंका,
वर्षा निर्मल जल देती |
आँधी करती मैला आँगन,
तो वर्षा पावन कर देती |
आँधी करती सब उथल-पुथल,
वर्षा देती हरियाला तल |
दिन है सुख तो दुख है रात,
सुख आँधी तो दुख है बरसात |
दिन रात यूँ ही चलते रहते ,
थक गये हम तो कहते-कहते |
पर ख़त्म नहीं ये बात हुई,
हुआ क्या जो रात हुई |


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९.आँसू

आँसू इक धारा निर्मल,
बह जाता जिसमें सारा मल|
धो देते हैं आँसू मन,
कर देते हैं मन को पावन |
हो जाते हैं जब नेत्र सजल,
भर जाती इनमें अजब चमक |
बह जाएँ तो भाव बहाते हैं,
न बहें तो वाणी बन जाते हैं |
उस वाणी का नहीं कोई मोल,
देती ह्रदय के भेद खोल |
उस भेद को जो न छिपाता है,
वह कलाकार कहलाता है |
उस कला को देख जो रोते हैं ,
अरे,वही तो आँसू होते हैं |


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१०.आदर्शवादी
अक्सिक्यूटिव चेयर पर बैठे हुए जनाब हैं
उनके आदर्शों का न कोई जवाब है
एनक लगी आँखों पर,उँचे -उँचे ख्वाब हैं
ऊपर से मीठे पर अंदर से तेज़ाब हैं
बात उनको किसी की भी भाती नहीँ
शर्म उनको ज़रा सी भी आती नहीँ
दूसरों के लिए बनाते हैं अनुशासन
स्वयं नहीँ करते हैं कभी भी पालन
इच्छा से उनकी बदल जाते हैं नियम
बनाए होते हैं उन्होंने जो स्वयं
इच्छा के आगे न चलती किसी की
भले ही चली जाए जिंदगी किसी की
स्वार्थ के लोभी ये लालच के मारे
करें क्या ये होते हैं बेबस बेचारे
मार देते हैं ये अपनी आत्मा स्वयं ही
यही बन जाते हैं उनके जीवन करम ही
गिरते हैं ये रोज अपनी नज़र में
हर रोज,हर पल,हर एक भवँर में
आवाज़ मन की ये सुनते नहीँ
परवाह ये रब्ब की भी करते नहीँ
आदर्शवाद का ये ढोल पीटते हैं
जीवन में आदर्शों को पीटते हैं
जीवन के मूल्योंी को करते हैं घायल
जनाब इन घायलों के होते हैं कायल


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११.समाज के पहरेदार
समाज के पहरेदार ही,
लूटते हैं समाज को |
करते हैं बदनाम फिर ,
रीति रिवाज को |
कूरीतिओं को यही लोग,
देते हैं दस्तक |
हो जाते हैं जिसके आगे,
सभी नत्मस्तक |
झूठी शानो शोकत का,
करते हैं दिखावा |
पहना देते हैं फिर उसको,
रंगदार पहनावा |
अधर्मी बना देते ये फिर,
धरम के ठेकेदार को |
समाज के....................................................
लोगों के बींच करते हैं,
बड़े बड़े भाषण |
दूसरों को बता देते हैं,
सामाजिक अन्नुशासन |
अपनी बारी भूलते हैं,
सब क़ायदे क़ानून |
इन्हीं में झूठी रस्मों का ,
होता है जुनून |
ताक पर रख देते हैं,
ये शर्म औ लाज को |
समाज के.............................................
लालची हैं भेडियी हैं,
भूखे हैं ताज के |
किस बात के पहरेदार हैं ,
ये किस समाज के |
अंदर कुछ और बाहर कुछ,
क्या यही सामाजिक नीति है?
लाहनत है कुछ और नहीं,
क्या रिवाज क्या रीति है |
क्या है क़ानून ?जो दे सज़ा,
एसे दगाबाज़ को |
समाज के...............

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१२.एक सपना

कल रात को मैने
एक सपना देखा
भीड़ भरे बाज़ार में
नहीँ कोई अपना देखा
मैने देखा
एक घर की छत के नीचे
कितनी आशांति
कितना दुख
और
कितनी सोच
मैने देखा
चेहरे पे चेहरा
लगाते हैं लोग
ऊपर से हँसते
पर अंदर से
रोते हैं लोग
भूख,लाचारी,बीमारी,बेकारी
यही विषय है बात का
आँख खुली
तो देखा
यह सत्य है
सपना नहीँ रात का
वास्तव में देखो
तो यह कहानी
घर-घर में
दोहराई जाती है
कोई बेटी जलती है तो
कोई बहु जलाई जाती है
कितनो के सुहाग उजड़ते रोज
तो कई उजाड़े जाते है
यह सब करके
भी बतलाओ
क्या लोग शांति पाते हैं ?
कितनी सुहागिने हुई विधवा
कितने बच्चे अनाथ हुए
कितना दुख पाया जीवन मे
और ज़ुल्म सबके साथ हुए


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१३.वह सुंदर नहीँ हो सकती

अपनी ही सोचों में गुम
एक
मध्मय-वर्गीय परिवार की लड़की
सुशील
गुणवती
पढ़ी-लिखी
कमाऊ-घरेलू
होशियार
संस्कारी
ईश्वर में आस्था
तीखा नाक
नुकीली आँखें
चौड़ा माथा
लंबा कद
दुबली-पतली
गोरा-रंग
छोटा परिवार
अच्छा खानदान
शौहरत
इज़्ज़त
जवानी
सब कुछ...........
सब कुछ तो है उसके पास
परंतु
परंतु, वह सुंदर नहीँ हो सकती
क्यों?
क्योंकि............
उसके चेहरे पर निशान है
वक्त और हालात के थपेडो के

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१४.झोंपड़ी में सूर्य-देवता
पुल के नीचे
सड़क के बाजु में
तीलो की झोंपड़ी के अंदर
खेलते.............
दो बूढ़े बच्चे
एक नग्न और
दूजा अर्ध-नग्न
दीन-दुनिया से बेख़बर
ललचाई नज़रों से
देखते.........
फल वाले को
आने-जाने वाले को
हाथ फैलाते.....
कुछ भी पाने को
फल,कपड़े,जूठन,खाना
कुछ भी.........
सरकारी नल उनका
गुस्लखाना
और रेलवे -लाइन.....पाखाना
चेहरे पर उनके केवल अभाव
सर्दी-गर्मी का उन पर
नहीँ कोई प्रभाव
अकेले हैं बिल्कुल
कुछ भी तो नहीँ
उनके अपने पास
नहीँ करते वे किसी से
हस्स कर बात
और झोंपड़ी से
झाँकता सूर्य देवता
मानो दिला रहा हो
अहसास........
कोई हो न हो
लेकिन
मैं तो हूँ
और हमेशा रहूँगा
तुम्हारे साथ
तब तक............
जब तक है
तुम्हारा जीवन
यह झोंपड़ी
और ग़रीबी का नंगा नाच

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१५.आज का दौर
आजकल रहती है सबको ही टेंशन
बी पी लो हो जाता है, लगते हैं इंजेक्शन
कोई कहता लड़ना है मुझको इलेक्शन
कोई कहता लग जाएगी इस साल पेंशन
किसी को है ख़याल चला है कौन सा फैशन ?
कौन सी पहनू ड्रेस? लेते हैं सुजेशन
कोई कहता पहनूंगा मैं जूते एक्शन
किसी को है चिंता कैसे बनें रिएक्शन?
कोई रह सोचों में, कैसे बनें रिलेशन?
कोई कहे किसको कितनी दी जाए डोनेशन?
कोई कहे इस वर्ष कैसे होगा एडमिशन?
और कोई कहे हमने तो पूरा करना है मिशन
पर मैं काहूँ सब ठीक ही है डोंट मेंशन


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१६.रक्षा- बंधन
एक बार रक्षा-बंधन के त्योहार में,
बहन भाई से बोली बड़े प्यार में
मेरी रक्षा करना तुम्हारा फ़र्ज़ है
क्योंकि तुम पर इस
रेशम की डोरी का क़र्ज़ है
भाई भी मुस्कुरा कर बोला
बहन के सिर पर हाथ रख कर
तुम्हारी इज़्ज़त की रक्षा कारूँगा मैं
अपनी जान हथेली पर रखकर
यह सुना बहन ने तो बोली
थोड़ा सा सकुचा कर
यह इक्कीसवीं सदी का
जमाना है भाई
अपनी इज़्ज़त की रक्षा
तो मैं खुद कर सकती हूँ
मुझे तुम्हारी जान नहीँ
पैसा ही नज़राना है भाई
अगर बहन की इज़्ज़त चाहिए तो
कलर टी. वी मेरे घर पंहुचा देना
इस बार तो इतना ही काफ़ी है
फिर
स्कूटर तैयार रख लेना
वी.सी.डी. भी दो तो चलेगा
फिर मेरे रूम में
ए.सी. भी लगवाना पड़ेगा
अगर बहन की इज़्ज़त है प्यारी
तो मुझे फ्रिज भी देना
स्टोव नहीँ जलता मुझसे
इस लिए गैस-चूल्हा भी देना
डाइनिंग टेबल, सोफा-सेट,अलमारी
वग़ैरह तो छोटा सामान है
वह तो खैर तुम दोगे ही
इसी में ही तुम्हारी शान है
रक्षा-बंधन में ही तो झलकता है
भाई बहन का प्यार
यह त्योहार भाई -बहन का
आता क्यों नहीँ वर्ष में चार बार
भाई बोला कुछ मुँह लटका कर
यह है भाई-बहन के प्यार का उजाला
एक ही रक्षा-बंधन (के त्योहार) ने
मेरा निकाल दिया है दीवाला
मैं कहती हूँ हाथ जोड़ कर
घायल न इसको कीजिए
भाई बहन के
पावन त्योहार को
पावन ही रहने दीजिए
पावन ही रहने दीजिए



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१७.साइकिल
आज मेरे पौने दो साल के
बेटे ने जब
साइकिल की
ज़िद्द मारी
तो याद आई मुझे
वह अपनी
प्यारी सी लारी
दो पहियों की साइकिल पे
घूमना - घुमाना
वो मस्ती मनाना
न सुनना - सुनाना
सड़क के बीँचों - बींच
कॉलेज को जाना
वो वाहनों का पीछे से
हॉर्न बजाना
साइकिल चलाते हुए गुन - गुनाना
सस्ती सी , अच्छी सी और
टिकायू स्वारी
सच्च में
साइकिल जैसी
नहीं कोई लारी
फिर आया हमारा वह
मोपैएड का ज़माना
अपनी पॉकेट मनी को
पेट्रोल में लूटाना
और फिर बनाना
कोई
अच्छा सा बहाना
पर साइकिल तो साइकिल है
तब हम चलाते थे
लोहे का साइकिल
अब हम चलाते हैं
ज़िंदगी की साइकिल
सच्च में
सुख और दुख
ज़िंदगी की दो पहियों वाली
साइकिल ही तो है
ख़ुशी और ग़म
इस साइकिल की
ब्रेक हैं ..................
दो पहियों की साइकिल तो
चलती ही रहती
साइकिल जैसी
नहीं कोई
दूजी स्वारी
मुझे सच्च में
साइकिल लगे प्यारी - प्यारी
साइकिल से गिर कर
चोट का
मेरी आँख पर
अब भी निशान है
लेकिन सच्च कहूँ तो
साइकिल चलाना
मेरा
अब भी अरमान है



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१८.रेत का घरौँ दा


देखी तस्वीर तो
मुझे याद आया
अपना बचपन
जो............
बन गया था
साया
हम भी रेत के
घरौँ दे बनाते थे कभी
रेत पैरों पे अपने
थप - थापाते थे कभी
आराम से फिर .....
घरौ दे से पैर
को निकालना
और
प्यार से अपने
घर को संवारना
खेल ही खेल में
कुछ .................
पता न चला
और
प्यार का घरौँ दा
एक बन ही गया
वह रेत का
घरौँ दा
तो टूट ही गया
पर प्यारी सी यादें
वह छोड गया
वह तो एक
रेत का घरौँ दा ही था
अपने पैरों से
जिसे हमने
रौंदा ही था
पर
दुआ करती हूँ
कभी ..........
प्यार का घरौँ दा न टूटे
मानवता से प्यार का रिश्ता
कभी न छूटे
घरौँ दा रेत का तो
फिर भी कभी
बन जाएगा
पर प्यार का घरौँ दा
गर टूट गया
वह फिर न
कभी भी
बन पाएगा


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१९. आज़ाद भारत की समस्याएँ

भारत की आज़ादी को वीरों ,
ने दिया है लाल रंग |
वह लाल रंग क्यों बन रहा है ,
मानवता का काल रंग |
आज़ादी हमने ली थी,
समस्याएँ मिटाने के लिए |
सब ख़ुश रहें जी भर जियें,
जीवन है जीने के लिए |
पर आज सुरसा की तरह ,
मुँह खोले समस्याएँ खड़ी |
और हर तरफ़ चट्टान बन कर,
मार्ग में हैं ये आड़ि |
अब कहाँ हनु शक्ति,
जो इस सुरसा का मुँह बंद करे |
और वीरों की शहीदी ,
में नये वह रंग भरे |
भूखमरी ,बीमारी, बेकारी ,
यहाँ घर कर रही |
ये वही भारत भूमि है,
जो चिड़िया सोने की रही |
विद्या की देवी भारती,
जो ग्यांन का भंडार है |
अब उसी भारत धरा पर,
अनपढ़ता का प्रसार है |
गयान औ विग्यान जग में,
भारत ने ही है दिया |
वेदो की वाणी अमर वाणी,
को लूटा हमने दिया |
वचन की खातिर जहाँ पर,
राज्य छोड़े जाते थे |
प्राण बेशक तयाग दें,
पर प्रण न तोड़े जाते थे |
वहीं झूठ ,लालच ,स्वार्थ का है,
राज्य फैला जा रहा |
और लालची बन आदमी ,
बस वहशी बनता जा रहा |
थोड़े से पैसे के लिए,
बहू को जलाया जाता है |
माँ के द्वारा आज सुत का,
मोल लगाया जाता है |
जहाँ बेटियों को देवियो के,
सद्रश पूजा जाता था |
पुत्री धन पा कर मनुज ,
बस धन्य -धन्य हो जाता था |
वहीं पुत्री को अब जन्म से,
पहले ही मारा जाता है |
माँ -बाप से बेटी का वध,
कैसे सहारा जाता है ?
राजनीति भी जहाँ की,
विश्व में आदर्श थी |
राम राज्य में जहाँ
जनता सदा ही हर्ष थी |
ऐसा राम राज्य जिसमे,
सबसे उचित व्यवहार था |
न कोई छोटा न बड़ा ,
न कोई आत्याचार था |
न जाति -पाति न किसी,
कुप्रथा का बोलबाला था,
न चोरी -लाचारी , जहा पर,
रात भी उजाला था |
आज उसी भारत में ,
भ्रषटा-चार का बोलबाला है |
रात्रि तो क्या अब यहाँ पर,
दिन भी काला काला है |
हो गई वह राजनीति ,
भी भ्रष्ट इस देश में |
राज्य था जिसने किया ,
बस सत्य के ही वेश में |
मज़हब ,धर्म के नाम पर,
अब सिर भी फोड़े जाते हैं |
मस्जिद कहीं टूटी ,कहीं,
मंदिर ही तोड़े जाते हैं |
अब धर्म के नाम पर,
आतंक फैला देश में |
स्वार्थी कुछ तत्व ऐसे,
घूमते हर वेश में|
आदमी ही आदमी का,
ख़ून पीता जा रहा |
प्यार का बंधन यहाँ पर,
तनिक भी तो न रहा |
कुदरत की संपदा का भारत,
वह अपार भंडार था |
कण-कण में सुंदरता का ,
चाहूं ओर ही प्रसार था |
बख़्शा नहीं है उसको भी,
हम नष्ट उसको कर रहे |
स्वार्थ वश हो आज हम,
नियम प्रकृति के तोड़ते |
कुदरत भी अपनी लीला अब,
दिखला रही विनाश की |
ऐसा लगे ज्यों धरती पर,
चद्दर बिछी हो लाश की |
कहीं बाढ़ तो कहीं पानी को भी,
तरसते फिरते हैं लोग |
भूकंप,सूनामी कहीं वर्षा हैं,
मानवता के रोग |

ये समस्याएँ तो इतनी,
कि ख़त्म होती नहीं |
पर दुख तो है इस बात का,
इक आँख भी रोती नहीं |

हम ढूंढते उस शक्ति को,
जो भारत का उधार करे |
ओर भारतीय ख़ुशहाल हों,
भारत के बन कर ही रहें |



**************************



२०.किस्मत का खेल

किस्मत का खेल निराला है ,
कहाँ कब क्या होने वाला है?
यही बात समझ में आ जाए,
तम घोर भी फिर उजाला है |

किस्मत का धनी कहलाता है,
जो सब कुछ ही पा जाता है |
दौलत ,शौहरत ,पदवी औ खुशी,
सचमुच जीवन में वही सुखी |

हर कदम पे सफल जो होता है
,और चैन की नींद जो सोता है |
जो चाहे वो सब कुछ पाता है,
गम भी हस्स के अपनाता है |

गैरों के गम अपना लेना,
हस्स-हस्स के जीवन जी लेना |
नफ़रत की जगह नहीँ होती,
और प्यार जिसे दुनिया करती |

ऐसे लोग कभी भी नहीँ मरते,
मर कर भी जिंदा हैं रहते |
सचमुच है वह किस्मत वाला,
पिया जिसने अमृत का प्याला |

बिन कर्म के किस्मत सो जाती,
गुमनामी में ही खो जाती |
तदबीर चाबी, तकदीर ताला ,
इसे खोले कोई किस्मत वाला |


*************************



२१. जमाना अब भी वही है


वर्षों से सुनते आ रहे हैं
दादा-दादी,नाना-नानी,माँ-बाप
और
अब कहते हैं
अपने बच्चों से
कि
जमाना बदल गया है
बदल गई है
वो तस्वीर,
वो सोच,
वो रहन-सहन,
वो ख़ान-पान,
वो दोस्त,
वो सभ्यता,
वो संस्कृति,
वो रीति-रिवाज़
सब कुछ.............
सब कुछ वैसा नहीँ ,
जैसा था.............
जमाना बदल गया है |
लेकिन...............
लेकिन आज
रास्ते में चलते
एक गली के अंदर
सरकारी प्राइमरी स्कूल
की टूटी हुई इमारत
इमारत के बाहर
वही छोटी सी दुकान
थोड़े से बेर,
बर्फ का गोला,
थोड़ी सी टॉफियाँ
वो नंगे पाँव
अर्धनग्न बच्चे
और बच्चों का झगड़ा
चीख-चीख कर
कर गये बयान कुछ इस तरह
अरे, पीछे मुड़कर देखो
कुछ भी तो नहीँ बदला
देखो....................
वो ग़रीबी
वो बेकारी
वो दर्द
वो झगड़े
वो नफ़रत
वो लालच
वो भूख
---------------
---------------
---------------
सब कुछ बिल्कुल वैसा ही
और भी देखो...........
वो प्यार
वो सभ्यता
वो संस्कार
वो माहौल
वो माँ की ममता
वो बाप का स्नेह
वो रीति-रिवाज़
वो दिन-त्योहार
वो खुशी-गम
वो सुख-दुख
सब कुछ बिल्कुल वैसा ही
कुछ बदला..............?
कुछ बदला है तो तुम
केवल तुम..........
तुम्हारा रहन-सहन
तुम्हारा माहौल
तुम्हारी सोच
बस दूर हो गये हो हम सबसे
केवल तुम...............
तुम ही बढ़ गये आगे
और
नही देखा कभी
पीछे मुड़कर
केवल तुम ही छोड़ चले
वो गलियाँ
वो लोग
वो माहौल
देखने लगे आगे
और बढ़ते गये
अपनी ही धुन में
नहीँ देखा..............
नहीँ देखा कभी
कोई पीछे है तुम्हारे
और वो भी...............
उसी पथ के राही है
जहाँ से तुम गुज़रे हो कभी
और
तुम्हारे पीछे है
लंबी पंक्ति..................
जिसका कोई अंत नहीँ
देखो कभी पीछे मुड़कर
और देखो......................
नज़र की गहराई से
तो पायोगे
सब कुछ बिल्कुल वैसा ही
जैसा............
पीछे छोड़ गये हो तुम
कुछ भी नहीँ बदला
जमाना अब भी वही है |




******************************



२२. धरती माता

धरती हमारी माता है,
माता को प्रणाम करो |
बनी रहे इसकी सुंदरता,
ऐसा भी कुछ काम करो |
आओ हम सब मिलजुल कर,
इस धरती को ही स्वर्ग बना दें |
देकर सुंदर रूप धरा को ,
कुरूपता को दूर भगा दें |
नैतिक ज़िम्मेदारी समझ कर,
नैतिकता से काम करें |
गंदगी फैला भूमि पर
माँ को न बदनाम करें |
माँ तो है हम सब की रक्षक
हम इसके क्यों बन रहे भक्षक
जन्म भूमि है पावन भूमि,
बन जाएँ इसके संरक्षक |
कुद्रत ने जो दिया धरा को
उसका सब सम्मान करो |
न छेड़ो इन उपहारों को,
न कोई बुराई का काम करो |
धरती हमारी माता है,
माता को प्रणाम करो |
बनी रहे इसकी सुंदरता,
ऐसा भी कुछ काम करो |


*****************************



२३. वह मुस्काता सुंदर चेहरा

वह मुस्काता सुंदर चेहरा
मेरी आँखों में घूमता है
जब याद स्ताती है दिल को
कोई गूँज़ बताती चुपके से
तुम पा गई हो उस मंज़िल को
जहाँ तेरा-मेरा मेल नही
जीना मरना कोई खेल नहीँ
तब न जाने किस कोने से
इक मधुर राग सा गूँजता है
वह मुस्काता.....................
जब मिलने कि उत्सुक आँखें
अश्रू जल से भर जाती हैं
तब चीस निकलती सीने से
आँखों से आँसू गिरते हैं
और दिल भी रोने लगता है
वह मुस्काता सुंदर चेहरा
मेरी आँखों में घूमता है


*******************************


२४. 22स्वीं सदी में...........?

आज मैने इक बड़े शहर को
और लोगों की खूब भीड़ को
पानी के लिए तरसते पाया
इक-दूजे पे बरसते पाया


आज हम पानी का भरते पैसा
मोल है उसका दूध के जैसा
उसमें भिन्न-भिन्न प्रकार
चाहिए तुम्हे जैसा आकार


न जाने क्यों ख्याल ये आया?
कैसा होगा भविष्य का साया?
सौ साल आगे दिमाग़ घुमाया
तो कुछ इस तरह का पाया


हम सब दिखे कुली के जैसे
चलते फिरते मरीजों जैसे
पीठ पे रखे हरदम भार
आक्सीजन का भरा सिलेंडर

ले रहे थे हम हवा भी मोल
देता दुकानदार था तोल
उसमें भी कुछ थी वैरायटी
भिन्न-भिन्न जैसे है माटी

आया से पूछते बच्चे ऐसे
मेरे माता-पिता हैं कैसे?
क्या वो इस फोटो के जैसे?
या आंटी-अंकल के जैसे?

भीड़ में हम सब थे अकेले
तन्हाइयों के लगे थे मेले
नहीँ ये सब थे घर के झमेले
जहाँ पे चाहा वहीं वहाँ पे रहले

शादी तो इतिहास ही लगा
रिश्ता भी बकवास ही लगा
कौन है भाई ,कौन है बहना?
किसको माता-पिता है कहना?

पैदल हम नहीँ चल रहे थे
भीड़ में ही हम खो गये थे
वायुयान में ही करते स्वारी
नहीँ दिखी कोई छोटी लारी

चाँद पे करते सुबह की सैर
वहाँ पे रख सकें हम पैर
वहाँ पर भी तो भीड़ ही देखी
और ऐसी गंदगी भी देखी

पशु भी देखे बैठे चाँद पर
नहीँ उनकी थी जगह ज़मीं पर
परिंदों ने ढूँढा नया ठिकाना
चाँद से सूर्य पे आना-जाना

कोई भी अपना नहीँ दिखा था
क्या भारत भी ऐसा होगा?
तब हम यहाँ से न देखेंगे
ऊपर से दीदार करेंगे



**************************



२५. किरण या साया

आज पहली बार
मैने देखा ध्यान से
अपने आगे चलती परछाई को
तो मन में सोचा
ये काला साया
क्यों मेरे रास्ते में आया ?
क्या ये अंधेरे की भाँति,
सदा रहेगा मेरे सम्मुख?
कभी नहीँ बदलेगा ,
यह अपना रुख़ ?
पीछे से सूर्य की तेज़ किरण
पड़ी मेरे सिर पर
और लगा
दिला रही है अहसास मुझे
मेरे सिर पर हाथ रख कर
देखो.................
मेरी तरफ देखो
मैं काला साया नहीँ
किरण हूँ रोशनी की
मैं सदा साफ रखूँगी
तुम्हारा मार्ग
अगर देखोगी तुम मेरी तरफ़
मेरे स्वामी....सूर्य की तरफ
................................
.................................
सूर्य तो तुम्हारे सामने
रोशनी ले आएगा
पर ये साया..........
ये साया तुम्हें केवल
अंधेरा ही दिखाएगा
अगर देखोगी तुम साए को
तो..................
रोशनी और अपने बींच
इस अंधेरे को पायोगी
और...............
रोशनी तक कभी नहीँ पहुँच पायोगी
लेकिन..............
अगर मेरी तरफ
अपना मुँह घुमायोगी
तो इसी साए को
अपने पीछे भागता पायोगी
अब यह तुम सोचो
कि तुम
कुत्ते कि तरह साया चाटोगी
या फिर....................
मेरा साथ चाहोगी
मैं तोड़ा सा हिच किचाई
सोचा????????????
तो समझदारी मुझे
रोशनी की किरण में नज़र आई
बस............
मैने उसी तरफ अपना सिर घुमाया
और तब
उस काले साए को
अपने पीछे आते पाया



************************************



२६.चुनाव अभियान

जैसे हेी चुनाव आयोग ने
चुनाव आचार सन्हिता का बिगुल बजाया
तो नेता जेी के शैतानेी दिमाग ने
अपना अलग रास्ता बनाया
और नेता जेी को समझाया
अब छोडो मेरा साथ ,मेरा कहना
और कुछ दिन केवल दिल के अधेीन हेी रहना
नेता जेी जो कभेी-कभेी कविता लिखने का शौन्क फर्माते है
और कभेी-कभेी अपने दिमाग के कारण
समीक्षक भेी कह्लाते है
वहेी दिमाग अब नेता जेी को सम्झाता है
अरे चुनाव अभियान में
समीक्षक नहेी
कवि हेी काम आता है
कवि हो तो उसका फायदा क्यो नहेी उठथाते ?
कुछ ऐसे नारे क्यो नहेी बनाते
जिसमे हो कुछ झूठे वादे,कसमे और लारे
जिसमे फन्स जाये भोले-भाले लोग बेचारे
बस कुछ दिन मे तो चुनाव खतम हो जायेगेी
और तेरेी-मेरेी फिर से मुलाकात हो जायेगेी
फिर हम दोनो मिलकर करेन्गे राज्
और करेन्गे इन दिल के मरेीजो को नजरन्दाज्
नेता जेी घबराये और बोले
तेरे बिना मै क्या कर पाऊँगा?
यो हेी दिल के हाथो मर जाऊन्गा
अरे! मेरे होते तू क्यो घबराता है?
नेता का दिल भेी तो उसका दिमाग हेी चलाता है
बस फरक सिर्फ इतना है
कि दिल को थोड़े दिन्
रखना है दिमाग से आगे
और देखना लोग आयेन्गे
तुम्हारे पीछे भागे-भागे
बस उनको दिल केी बातो से बस मे है करना
और दिमाग से है नामान्कन भरना
होगा तो वहेी जो तुम चाहोगे
पहले भेी लोगो को मूरख बनाया
आगे भेी बनायोगे
जेीतोगे और् तुम्हे सम्मान् भेी मिल जायेगा
और
लोगो केी मूरखता का प्रमाण मिल जायेगा
______________________________
_________________________________
___________________________________
लेकिन्
इस बार तो नेता जेी के दिमाग ने धोखा खाया
लोगो ने अपना दिमाग चलाया
और
नेता जेी को बाहर का रास्ता दिखाया
नेता जेी,
जो स्वयम को समझते थे
समाज का आईना
अब स्वयम को समाज के आईने मे पाया


*****************************


२७..कुत्तो की सभा
कुत्तो ने इक सभा बुलाई
सबने अपनी समस्या सुनाई
सुन रहा कुत्तो का सरदार
हर समस्या पे होगा विचार
समस्या अपनी लिख कर दे दो
कोई एक फिर उसको पढ दो
हर समस्या का हल ढूढेन्गे
जो भी होगा सब करेन्गे
आई समस्याएँ कुछ ऐसी
चलते फिरते मानव जैसी
समस्या आई नम्बर वन
भौक के बीत गया यह जीवन
भौन्कने मे थे बडी मिसाल
पर नेता ने समझ ली चाल
भौन्कता है वो हमसे ज्यादा
हमे फेल करने का इरादा

समस्या नम्बर आई दो
सुनाई कुत्ते ने रो-रो
अब तो कोई करो इन्साफ
करदो मेरी गलती माफ
मैने इक हड्डी थी उठाई
गली मे लावारिस थी पाई
उठा कर क्या गलती की मैने
अब तक मुझको मिलते ताने
पानी मे दिख गई परछाई
मैने समझा मेरा भाई
भाई समझ कर मै था भौन्का
लोगो को बस मिल गया मौका
लालची कहकर लगे चिढाने
बच्चो को शिक्षा के बहाने
सबने मुझको लालची कह दिया
मैने मुकदमा दायर कर दिया
तब तो था मुझमे भी जोश
पर अब उड गए मेरे होश
नही और मै लड सकता हूँ
न समझौता कर सकता हूँ
लालची सुनकर पक गया हूँ
अब मै सचमुच थक गया हूँ
दिख गई मेरी एक ही हड्डी
पर खाते जो रोज सब्सिडी
उनको कोई लालची नही कहता
उनका चेहरा कभी न दिखता
कहते-कहते भर आया मन
कुत्ते के गिर गए अश्रु कण

पानी पिलाकर चुप कराया
अब तीसरी समस्या को लाया
उठते मेरी दुम पे स्वाल
कैसे है लोगो के ख्याल
बोले कभी सीधी नही होती
बारह साल दबाओ धरती
जो मेरी दुम सीधी होगी
तो क्या जगह को साफ करेगी
बताओ फिर यह कैसे हिलेगी ?
हिलाए बिना न रोटी मिलेगी
मेरी दुम के पीछे पडे है
किस्से करते बडे बडे है
पर नही सीधे होते आप
टेढे हर दम करते पाप

अब सुनो समस्या फोर्
कहते मुझको पकडो चोर
बताओ मै किस-किस को पकडूँ
किस-किस को दाँतो मे जकडूँ
मुझे तो दिखते सारे ही चोर
कहाँ-कहाँ मचाऊँ मै शोर

समस्या नम्बर आई फाईव
देखो समचार यह लाईव
हुई है नई कम्पनी लाँच
बाँध के रखे है कुत्ते पाँच
कहते है कुत्ते है वफादार
बाँधो इन्हे बिल्डिन्ग के द्वार
अन्दर बैठे धोखेबाज
कैसे -कैसे है जालसाज
भौन्के जब उन दगाबाज पे
तो बन जाए उनकी जान पे
अब आई है समस्या सिक्स
कैसे हो जाएँ सबमे मिक्स
बस करो ! सरदार चिल्लाया
गुस्से मे फरमान सुनाया
पीले से मै हो गया काला
लगा न तेरे मुँह पे ताला
झट से अपना बुलाया सहायक
यह सारे तो है नालायक
तुम एक सॉफ्टवेयर बनवाओ
सारा डाटा फीड कराओ
फिर हम उसमे सर्च करेन्गे
समस्याओ का हल ढूँढन्गे
मेरे पास कभी न आना
पर जब चाहो मेल लगाना
मिनटो मे हल होगी समस्या
नही करोगे कोई तपस्या
इक सी.सी.टी.वी. लगवाओ
मेरे कैबिन मे फिट कराओ
नज़र मै अब हर पल रखुँगा
सबसे ही इन्साफ करूँगा
जो हुआ ! उसको जाने दो
क्षमा अब नादानो को करदो
पर आगे से रहे ध्यान
कुत्तो का न हो अपमान
ऐसी कोई गलती न करना
मेरे सम्मुख कभी न रोना
************************
२८.चलो हम भी चलते है.......?

जीवन रूपी
रथ के पहिए
हालात से जख्मी ,
लहु से
लथपथ नन्गे पैर
चलते है
सन्सार रूपी सागर के किनारे
हालात के
बिछे बालू पर
छोडते है
अपने कदमो के निशान
और
एक ही लहर
मिटा देती है उन निशानो को
जो
धन्स गए थे गहरे
उस सीली रेत मे
रह जाती है बस यादे
सागर तट पर
कुलबुलाती मछलियो की भान्ति
सैकडो अनुभव
और जख्म खाए पैर
बन कर रह गए इतिहास
बन्द किताबो मे

और यह बन्दर की औलाद
पढती तो है
पर समझती नही
आखिर है तो
बन्दर की औलाद ही ना
जब तक पत्थर ना खाएगी
नही समझेगी
चलेगे उसी बालु पर
बटोरेगे अनुभव
पीटेगे माथा नई पीढी को
समझाने के लिए
पर यह नही समझेगे
कि जब खुद ही
अपने अनुभव से सब समझा
तो यह नए जमाने के लोग
क्यो समझेगे दूसरो से
अपनी राह बनाएँगे
फिर से वही क्रम दोह्राएँगे
बार - बार यही दो पैर
आते है ,चले जाते है
और फिर
इतिहास बन
किताबो मे बन्द हो जाते है
चलो हम भी चलते है
****************************************
२९.टीस
हृदयासागर पर
भावनाओ के चक्रवात को
चीरती निकलती है
विनाशकारी लहर
बह जाती
अनजान पथ पर
तेज नुकीली धार बन कर
मापती अनन्त गहराई
बिना किनारे और
मन्जिल के
चलती बेप्रवाह
कही भी तो
नही मिलती थाह
या फिर
चीरती है
काँटे की भान्ति
मन-मत्सय के सीने को
निकलती है बस
आह भरी चीस
भर जाती हृदय मे टीस

***********************************
३०.तो अच्छा है...............


ऊपर देखो मगर ,
पाँव ज़मीं पर ही रखो ,तो अच्छा है
बोलो अवश्य मगर,
विचार शुद्ध रखो तो अच्छा है
आगे बढ़ो मगर
किसी को रौंदो नहीँ तो अच्छा है
सोचो उँचा मगर
जीवन में सादगी रखो तो अच्छा है
कहो सब कुछ मगर
बात में सच्चाई रखो तो अच्छा है
जीवन जिओ मगर
औरों को जीने दो तो अच्छा है
नफ़रत करो मगर
उसमें करम की बुराई को रखो तो अच्छा है
प्यार करो मगर
उसमें खुदाई को रखो तो अच्छा है
कर्म करो मगर
उसमें कर्म की अच्छाई को रखो तो अच्छा है
देखो सब कुछ मगर
नज़र में गहराई को रखो तो अच्छा है
सपने देखो मगर
इरादे नेक हों तो अच्छा है

********************************

३१.कुत्तों का भोजन

आज फिर हुआ
गंदे नाले के पास
एक अविकसित
कन्या का दाह संस्कार
जिसे कह रहे थे
कुछ तमाशबीन
किसी बिन ब्याही
माँ का पाप
और कुछ ने कहा
लड़की को श्राप
बना रहे थे बातें
बिना किसी प्रयोजन
और
आज फिर मिल गया था
कुत्तों को भोजन
*********************
३२.क्या खोया ?,क्या पाया?

हर रोज की कहानी
पढ़ते हैं सुनते हैं
समझते है
फिर भी
उसे दोहराते हैं
.........................
.........................
बस बढ़ता ही जाता है
??????????????????????/
बहुओं का जलना
दहेज की बलि चढ़ना
इज़्ज़त लूटना
मारना -पीटना
ज़ुल्म करना
अत्याचार
देह-व्यापार
बुरा-व्यवहार
रिशतों का टूटना
लालच और अहंकार
पति-पत्नी का तलाक़
बच्चों संग दुराचार
हर जगह भ्रष्टाचार
रखना हाथ में हथियार
आपस में तकरार
युवा फिरते हैं बेकार
गलियों में..........
बूढ़े और बीमार
बच्चे.............
माँ -बाप से शर्मसार
दिखाना................
खुद को इज़्ज़तदार
झूठी शानो -शौकत
बहन भाई की नफ़रत
सिर पर कर्ज़
आत्महत्या का प्रयास
दुखी जीवन
हर पल तनाव
_______________
________________
कुछ कम हुआ
???????????????
तो वह है........
तन पर कपड़े
आपस का प्यार
खून के रिशतेदार
सादा जीवन
उच्च विचार
सच्चाई का व्योपार
प्यार का व्यवहार
एकजुट परिवार
पारिवारिक सभ्याचार
चेहरे पे हँसी
जीने की चाहत
सुखी जीवन
इज़्ज़त की रोटी
ईश्वर में आस्था
सच्चाई से वास्ता
___________________
_____________________
और खो गया है
????????????????
बच्चों का बचपन
सुखमय जीवन
शुद्ध वातावरण
अंधेरे में इंसान
जवानी में नौजवान
शुध पकवान
नव-वधू का अरमान
अपनी असली पहचान
सच्ची मुस्कान
अपने देश का प्यार
संस्कृति औ सभ्याचार
अच्छा व्यवहार
बुराई का तिरस्कार
आँख की शर्म
बड़ों की इज़्ज़त
छोटों से प्यार
बाप का स्नेह
माँ का दुलार
खून का लाल रंग
जीवन में उमंग
मानवता का अहसास
आपस का विश्वास
_________________
____________________
देखो अपनी अंदर की आँख से
बात करो अपने दिल से
यह जीवन हमें कहाँ से कहाँ ले आया
और हमने क्या खोया ?,क्या पाया?

*****************************
३३.मंदिर के द्वार पर


मंदिर के अंदर
स्वर्ण मूर्ति में
विराजमान भगवान
रतनजड़ित आभूषण
अंग-अंग पर
गहने और
रेशमी वस्त्र पहने
...........................
.........................
आँगण में बैठे कुछ जन पंक्ति लगाए
अपना पूरा पेट फैलाए
खाते स्वादिष्ट पकवान
समझें स्वयं को भगवान
लेते दक्षिणा में माया
न जाने किसने क़ानून बनाया
.................................
.............................
बाहर उसी मंदिर के द्वार
बैठी बुढ़िया एक बीमार
चलने-फिरने को लाचार
कहती सबको ही पालनहार
माँगे रोटी और आचार
....................................
....................................
देखो लोगों का व्यवहार
कैसे-कैसे अत्याचार
करते उसको खबरदार
करो कुछ तो तुम विचार
करोगी तुम सबको बीमार
छोड़ो इस मंदिर का द्वार
*************************

३४.प्यार का उपहार

आज प्यार के त्योहार पर
पति को क्या उपहार दूं |
मेरे पास तो ऐसा कुछ भी नहीं
कुछ शब्दों का ही प्यार दूं |

जब से आए हो मेरी,
ज़िंदगी में तुम |
तभी से समाए हो ,
मेरी बंदगी में तुम |
मेरी हर स्वास पर
तेरा ही अधिकार है
तुझ से ही तो बसा
मेरा संसार है

तेरे प्यार से बढ़कर
तो कुछ भी नहीं
तेरे जैसा प्यारा और कोई
सच्च भी नहीं
तुमने हर पल दिल से
साथ दिया है मेरा
क्यों न दो ?आख़िर
तू ही तो पिया है मेरा

तेरे प्यार के लिए तो
कोई शब्द भी नहीं
कुछ गाऊँ तेरे लिए
कोई तर्ज़ भी नहीं
बस इतना सा ही
मैं तो कह सकती
तेरे बिना अब पिया
मैं नहीं रह सकती

प्यार करती हूँ तुमसे
मैं इतना सनम
कर दिया तेरे नाम
मैने अपना जीवन
यह जीवन तो अब
तेरी सौगात है
जिसमे बस तेरे प्यार
की ही बरसात है

माँग के देख लो
पिया तेरे लिए
मेरी जान है हाज़िर
तेरी ख़ुशी के लिए
आज करती हूँ मैं
पिया वादा तुझे
साथ तेरा तो कुछ
नहीं चाहिए मुझे

माफ़ कर देना पिया
मेरी हर एक ख़ता
साथ देना सदा
चाहे दे लो सज़ा
तेरे बिना मेरा जीवन
है अधूरा सनम
तुम मिले मुझको
यह मेरा अच्छा कर्म

एक वादा करो
कभी छोड़ना नहीं
बंधन प्यार का पिया
कभी तोड़ना नहीं
**********************************

३५.अन्धो का आइना


अन्धेरे मे
रहना तो
अन्धो का स्वभाव है
दुनिया के
झूठे आइनो से
नही कोई लगाव है
नही
देख सकते
झूठ कपट का आइना
नही
जानते वो
किसी के पद चिन्हो पर चलना
माना
नज़र वाले
होते है बहुत महान
पर
अन्धे भी
नही होते इतने नादान
माना
नही कर सकते
वे किसी की पहचान
पर
बन्द नही होते
उनके कान और जुबान
उठा
सकते है
वो भी उस पर प्रश्न
जिसे
कहकर
नज़र वाले मनाते है जश्न
आपने
कुछ कहा
वो तो बात हो गई
दिया
उत्तर कोई
तो वो खता हो गई
आपने
कहा कुछ भी
और मुक्त हो गए
उठाई
जिसने आवाज़
वो अन्धे हो गए
क्यो
देखे ऐसा आइना
जिसमे किसी का अहम ही नज़र आए
इससे
तो अच्छा है
ईश्वर अन्धा ही बनाए

*****************************

३६.हे कविते

हे कविते
क्या पावन
रूप है तुम्हारा
भवुक हृदय का
तुम्ही तो हो सहारा
स्वच्छन्द प्रवाहित निश्चल
ज्यो
सूर्य की पहली किरण से
खिलता हुआ कमल
साहित्याकाश पर
सूर्य की भान्ति देदिप्यमान
कोमल सुन्दर
निष्कपट , बन्धन रहित
भावो का अरमान
हुआ
क्रोञ्च पक्षी का वध
निकले मुँह से ऐसे शब्द
बहने लगी
भावो की ऐसी सरिता
हो गई अमर कविता
बदले
युगो-युगान्त्रो मे
न जाने तुमने कितने रूप
फिर भी
हे कविते
नही बदला तेरा सुरूप
वही
बनी रही
नाजुकता , कोमलता , भावुकता
रहा
हर युग मे
कवि इसमे बहता
हे कविते
नही बन्ध सकती
तुम किसी बन्धन मे
तुम तो
बसती हो
हर भावुक मन मे
************************
३७.अगर हम गीतकार होते

कहते है
कुछ दोसत ! अबे सुन
क्या है
तुम्हारी कविता मे
गेयता के गुण?
तुम इसे
गा सकती हो क्या ?
कविता का
कौन सा रूप है?
बता सकती हो क्या?
किसने दिया
तुम्हे यह अधिकार?
कि
लिखो कविता
बिना सोच-विचार
लिखना है
तो लिखो दोहा ,
छन्द या चौपाई
तुम्हारी
काव्य विधा हमारी
समझ मे नही आई
कुछ
तो शर्म करो
और कविता पर रहम करो
बोलो
अब तक
तुमने क्या पढा?
जो
कविता लिखने का
भूत सर चढा
.......................
.......................
आपका कहना
सोलह आना सच्चा
पर
मेरा ही
विचार है कच्चा
नही
पिरोना आता
मुझे शब्दो को सूत्र मे
और
नही बहना आता
छन्द अलन्कारो की धार मे
नही है
मुझमे इतनी सोच विचार
पर
क्या करूँ ?
नही कर सकती
भावनाओ का तिरस्कार
इनको
बहाना मजबूरी है
उसके लिए
लिखना जरूरी है
सच्च जानो
, इसके अलावा
नही कोई प्रयोजन
फिर
क्यो करते हो ?
मुझसे ऐसे प्रश्न्
जिनके
मेरे पास
कोई उत्तर नही होते
दुनिया की
भीड मे यूँ ही नही खोते
हम
लिख कर क्या
गा कर सुना देते
ए दोसत !
अगर हम गीतकार होते


********************

३८.मुझे जीने दो

मुझे
जीना है
मुझे जीने दो
हे जननी
तुम तो समझो
मुझे दुनिया मे आने तो दो
तुम
जननी हो माँ
केवल एक बार तो
मान लो मेरा भी कहना
नही
सह सकती मैं
और बार-बार अब
और नही मर सकती मैं
कोई
तो मुझे
दे दो घर में शरण
अपावन नही हैं मेरे चरण
क्यों
हर बार मुझे
तिरस्कार ही मिलता है?
मेरा आना सबको ही खलता है
हे जनक
मैं तुम्हारा ही तो
बोया हुआ बीज हूँ
नही कोई अनोखी चीज़ हूँ
बोलो
मेरी क्या ग़लती है?
क्यों केवल मुझे ही
तुम्हारी ग़लती की सज़ा मिलती है?
कब तक
आख़िर कब तक
मैं यह सब सहून्गी?
दुनिया में आने को तड़पती रहूंगी?
क्या
माँ का गर्भ ही
है मेरा सदा का ठिकाना?
बस वहीं तक होगा मेरा आना जाना?
क्या
नही खोलूँगी मैं
आँख दुनिया में कभी?
क्यों निर्दयी बन गये हैं माँ बाप भी?
कहाँ तक
चलेगी यह दुनिया
बिना बेटी के आने से?
बेटी बन कर मैने क्या पाया जमाने से?
मैं
दिखाऊंगी नई राह
दूँगी नई सोच जमाने को
मुझे दुनिया में आने तो दो
मैं
जीना चाहती हूँ
मुझे जीने तो दो

******************
३९.कौन
करता है खुदकुशी.... ?
नव-वर्ष के जशन में लोगों का नाच
पूरा था आवेश,दे रहे थे शुभ-कामना संदेश
साथ में गा रहे थे गीत:-
आओ ना खुशी से खुदकुशी करें
सुन कर कान खड़े हो गये
नही विश्वास हुआ आँख और कान पर
पर यही तो था सबकी ज़ुबान पर
कुछ अजीब लगा-ऐसी शुभ-कामना
क्या सबकी यही है भावना
गा रहे थे खुशी से बिना डरे
अरे, आओ ना खुशी से खुदकुशी करें
..................................................
हम कोई समाज सुधारक नहीँ
किसी समाज सुधार सभा
के परचारक भी नहीँ
अच्छे विचारक भी नहीँ
पर, ऐसी बात पर अमल क्यों करें?
कि आओ ना खुदकुशी करें
मुझे नहीँ जानना इसमें
क्यों और क्या है मकसद
जो भी हो अच्छे नहीँ लगे शब्द
हमें नहीँ चाहिए ऐसी खुशी
जिसमें करने को कहा जाए खुदकुशी
कुछ देना चाहते हो तो ए दोसत
कोई गम भले ही दे दो
पर जीने का कोई संदेश सुना दो
सब के लिए अच्छा यही
ना बाँटो ऐसी खुशी
अरे! कौन करता है खुशी से खुदकुशी ?






****************************
४०.हे भगवान्......

हे भगवान
आओ और नष्ट करदो
वो प्यार
जिसकी नीव नफरत पर टिकी हो
वो विश्वास
जो अँहकार पर पलता हो
वो सुन्दरता
जिसके अन्दर कुरूपता हो
वो पुण्य
जो केवल स्व हित के लिए कमाए हो
वो अच्छाई
जो तुच्छ विचारो को जन्म दे
वो चेहरे
जो झूठ का नकाब ओढे हो
वो सँस्कार
जिसमे केवल अहित छुपा हो
वो आज़ादी
जो बस जड ही बनाती हो
वो आदर्श
जिसमे जीवन मूल्यो का मोल लगाय जाए
वो पहरेदार
जो परहित के भक्षक बन जाएँ
वो रीति रिवाज़
जो भेद भाव ही बताएँ
वो आशाएँ
जो मन्जिल तक न पहुँचाएँ
वो अमीरी
जो गरीबो का लहु पिलाए
वो दृष्टि
जो मूक बधिर बनाए
वो जीर्ण विचार
जो विकास मे बाधा बन जाएँ
वो सुख सुविधा
जो निट्ठला , निकम्मा ,आलसी बनाए
आओ विनाश करदो यह सब
नष्ट करदो भगवान
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और नव सृजन करो
करो नव निर्माण
वह नफरत
जिसमे प्यार के अन्कुर फूटे
वह अहँकार
जिसमे आत्म-विश्वास भरा हो
वह कुरूपता
जिसमे विचारो की सुन्दरता हो
वह पाप
जो पर हित खातिर किए जाएँ
वह बुराई
जो तुच्छ विचारो को मिटाए
वह चेहरे
जो झूठ का नकाब हटाएँ
वे सँस्कार
जिसमे सामाजिक हित सामने आए
वह बन्धन
जो विकास की राह पर चलना सिखाएँ
वे आदर्श
जो जीवन मूल्यो को अमूल्य बनाएँ
वह भ्रष्टाचार
जो भ्रष्ट आचार को दूर भागाएँ
वह रीति रिवाज़
जो भेद-भाव को मिटाएँ
वह निराशा
जो मन्जिल तक पहुन्चाए
वह गरीबी
जो सर उठा कर जीना सिखाए
वह विचार
जो काण्टो को भी फूल बनाएँ
वह कष्ट
जो नई सोच और जागरूकता लाएँ
वह आवाज़
जो दूसरो की दृष्टि बन जाए

हे भगवान
करदो नव निर्माण ऐसी सृष्टि
जिसमे सत्यम , शिवम , सुन्दरम
का बोलबाला हो

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४१.हे भगवान


हे भगवान
पाञ्चाली का तन ढकने के लिए
साडी का निर्माण किया तुमने
अब भी करो.....
जिससे अर्धनग्न तन ढक जाएँ
तुमने जेल के ताले तोड कर
आज़ादी हासिल की
अब भी तोडो बन्धन के ताले
जिससे सुन्दर भावो को आज़ादी मिल जाए
तुमने माखन चुराया
अब भी चुरा लो
जिससे कोई किसी को माखन लगा न पाए
तुमने शिव धनुष तोडा
अब भी तोडो परमाणु हथियार
जिससे दुनिया का विनाश न हो पाए
तुमने गोपियो को नचाया
अब ग्वालो को नचायो
जिससे दुनिया हमे नचा न पाए
तुमने राक्षसो का वध किया
अब भी करो
जिससे दुर्भाव रूपी राक्षस हमे खा न पाएँ



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४२.औरत


सोते-जागते,उठते-बैठते
खाते-पीते,चलते-फिरते
कई बार अनायास ही
कौन्ध जात है मन मे एक
अजीब सा स्वाल
न जाने क्यो आता है ऐसा ख्याल
हर रोज सुनते है
औरत पर जुल्म की दास्ताँ
जुल्म भी इतने
जिनकी नही कोई सीमा
क्यो.........?
औरत ही जलती है
दहेज की बली चढती है
औरत ही पिटती है
औरत ही मिटती है
औरत ही सहती है
औरत ही चुप रहती है
औरत ही रोती है
औरत ही खोती है
औरत ही मरती है
औरत ही डरती है
------------
-------------
कभी कभी भर जाता है मन
आखिर कौन है औरत का दुश्मन
सोचती हूँ
तो लगता है.............
औरत ही जलाती है
दहेज की बली चढाती है
औरत ही पिटवाती है
औरत ही मरवाती है
औरत ही सहन करवाती है
औरत ही रुलाती है
औरत ही चुप करवाती है
औरत ही डराती है
-----------------
------------------
न जाने कितने रूप बनाती है
कभी माँ बन कर समझाती है
बहन बन कर हँसाती है
सास बन कर जलाती है
तो कभी.............
सौत बन कर सताती है
----------------
----------------
एक ही जिन्दगी मे
औरत जीती है
कितने ही जीवन
ध्यान से सोचो तो
लगेगा............
औरत ही है औरत की दुश्मन


************************


४३.चरित्रहीन


माँ बाप बच्चा तो कभी भाई
की कस्मे खा-खा कर
कब तक देती रहेगी वह सफाई
कि वह है बिल्कुल बेगुनाह
बस केवल इसलिए.....
कि चाहिए उसे एक घर मे पनाह
माँ -बाप ,भाई का घर
तो होता ही है पराया
और जीवनसाथी ने
जीवन मे साथ नही निभाया
कभी नही किया
उस पर भरोसा
हर बात पे उसके
बेशर्म होने का इल्जाम ठोसा
स्वयम तो बाहर जाकर
गुलच्छरे उडाते है
और इज्जतदार पत्नी को
चरित्रहीन बताते है


*********************************************

४४.बूँद

स्वाति नक्षत्र
की एक बूँद से
सीप भी
मोती बन जाता है
एक
औस की बूँद
कर देती है
स्वच्छ सुमन
एक ही
बूँद दे देती है
नव जीवन
एक बूँद नष्ट होकर भी
नही
मिटता
जिसका अस्तित्व
समा जाती है
बादल मे
धुआँ बनकर
और्
एक एक बूँद मिलकर
बरसती है वर्षा बनकर
फिर से वही
क्रम दोहराना
आना
और फिर
नष्ट हो जाना
भरती
खुशियो से हर आँचल
धरा को देती हरियाला तल
देना ही जिसका स्वभाव
नही उस पर कोई प्रभाव
बस निष्काम भाव से
होना समर्पित
और
परहित मे
कर देना
स्वयम को अर्पित
यह वही बूँद है
हर बन्धन को
तोडने की
शक्ति है जिसमे
भले ही नन्ही सी है
पर नही
उस जैसा कोई महान
नही समझते
यह बाते
लोग अनजान
कि
बूँद से ही तो
पलता है जीवन
और खिलता है मन

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४५.ऋतुओ की रानी



धरा पे छाई है हरियाली
खिल गई हर इक डाली डाली
नव पल्लव नव कोपल फुटती
मानो कुदरत भी है हँस दी

छाई हरियाली उपवन मे
और छाई मस्ती भी पवन मे
उडते पक्षी नीलगगन मे
नई उमन्ग छाई हर मन मे

लाल गुलाबी पीले फूल
खिले शीतल नदिया के कूल
हँस दी है नन्ही सी कलियाँ
भर गई है बच्चो से गलियाँ

देखो नभ मे उडते पतन्ग
भरते नीलगगन मे रन्ग
देखो यह बसन्त मसतानी
आ गई है ऋतुओ की रानी

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४६.आन बसो कान्हा



कृष्ण कन्हैया धीरे - धीरे
और यमुना के तीरे तीरे
मुरली की धुन आज सुना दो
प्यार का फिर सन्देश सुना दो
देखो तेरी इस यमुना मे
कुञ्ज गलिन मे और मधुवन मे
गली गली मे वृन्दावन मे
और ब्रज के हर इक आँगन मे
कहाँ वो पहला प्यार रहा है?
बोलो! कान्हा अब तू कहाँ है?
क्यो तेरी पावन धरती पर
लालच ने डाला अपना घर?
कहा है माँ जसुदा की रस्सी?
और वो खट्टी-मीठी लस्सी
कहाँ वो छाछ ,दधि और दूध?
अब तो जैसे मची है लूट
कहाँ है वो ग्वाले और गोपी?
अब तो सारे बन गए लोभी
कहाँ है वो मीठी सी लोरी?
कहाँ गई वो माखन चोरी?
कहाँ गया वो रास रचाना?
मुरली बजा गायो को बुलाना
यमुना तट पर रास रचाना
और छुप-छुप कर मिट्टी खाना
कहाँ गया प्यारा सा उलाहना?
गोपियो का जो माँ को सुनाना
कहाँ है वो भोली सी बाते?
कहाँ गई पूनम की राते?
कहाँ गया निर्मल यमुना जल?
जहाँ पे पक्षी करते कलकल
कहाँ गए सावन के झूले?
कान्हा !अब यह सब क्यो भूले?
कहाँ है कदम्ब वृक्ष की छाया?
जिस पर तुमने खेल खिलाया
कहाँ गए होली के वो रन्ग?
जो खेले तुमने राधा सन्ग
कहाँ है नन्द बाबा का प्यार?
कहाँ है माँ जसुदा का दुलार?
कहाँ गई मुरली की वो धुन?
कहाँ गई पायल की रुनझुन?
अब वहाँ कपट ने डाला डेरा
लालच ने सबको ही घेरा
आओ कान्हा फिर से आओ
आ कर मुरली मधुर बजाओ
फिर से वो ब्रज वापिस लादो
फिर से धुन मुरली की सुना दो
आन बसो तुम फिर से कान्हा
और फिर वापिस कभी न जाना
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४७.क्षितिज के उस पार

आओ
चलो हम भी
क्षितिज के उस पार चले
जहाँ
सारे बन्धन तोड
धरती और गगन मिले
जहाँ
पर हो
खुशी से भरे बादल
और
न हो कोई
दुनियादारी की हलचल
बेफिक्र
जिन्दगी जहाँ
खेले बचपन सी सुहानी
जहाँ
पर नही हो
खोखली बाते जुबानी
खुले
आकाश मे
पतन्ग की भान्ति
उडे
और लाएँ
एक नई क्रान्ति
जो मेहनत
को बनाएँ
सफलता की सीढी
तभी
आसमान छुएगी
हमारी नई पीढी
दूर
खडा वृक्ष
दिलाता है मानो अह्सास
अकेला है
तो क्या है
कभी मत होना उदास
मै
भी तो
अकेला खडा हूँ यहाँ
थक
जाओगे जब
तो मै तुम्हे दूँगा छाया
उठो
हम भी चले
यह धरती आस्माँ एक जहाँ
और
पाएँ अपा.....र शान्ति
नही कोई भिन्नता वहाँ
चलो
हम भी चले
क्षितिज के उस पार वहाँ

It will give same feeling and meaning if you read it from bottom to top

चलो
हम भी चले
क्षितिज के उस पार वहाँ

और
पाएँ अपा.....र शान्ति
नही कोई भिन्नता वहाँ
उठो
हम भी चले
यह धरती आस्माँ एक जहाँ

थक
जाओगे जब
तो मै तुम्हे दूँगा छाया
मै
भी तो
अकेला खडा हूँ यहाँ

अकेला है
तो क्या है
कभी मत होना उदास

दूर
खडा वृक्ष
दिलाता है मानो अह्सास

तभी
आसमान छुएगी
हमारी नई पीढी
जो मेहनत
को बनाएँ
सफलता की सीढी

उडे
और लाएँ
एक नई क्रान्ति


खुले
आकाश मे
पतन्ग की भान्ति

जहाँ
पर नही हो
खोखली बाते जुबानी

बेफिक्र
जिन्दगी जहाँ
खेले बचपन सी सुहानी

और
न हो कोई
दुनियादारी की हलचल

जहाँ
पर हो
खुशी से भरे बादल

जहाँ
सारे बन्धन तोड
धरती और गगन मिले
आओ
चलो हम भी
क्षितिज के उस पार चले

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४८.प्यार मे तो शूल भी फूल


प्यार से तो शूल भी फूल बन जाते है
कभी किसी को दिल मे बसा के तो देख
सारी दुनिया अपनी सी लगने लगती है
कभी किसी को अपना बना के तो देख
लोग तो पत्थर मे प्रक्ट कर लेते है भगवान को
अहम त्याग के कभी सर को झुका के तो देख
जीवन की राहो मे नही चलना पडेगा तन्हा
कभी किसी के साथ कदम को मिला के तो देख
गमो का पहाड भी हल्का हो जाएगा
कभी किसी के गम को उठा के तो देख
तदबीर से बदल जाती है किस्मत की लकीर भी
कभी किसी से अपना हाथ मिला के तो देख

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४९.कविता मे सिन्धु

कवि कविता नही लिखता
लिखती है कविता कवि को अकसर
आ जाती यह जब भी चाहे
न देखे यह कोई अवसर
न दुख सुख देखे यह कविता
न देखे यह खुशी य गम
यह तो आ जाती है वहाँ पर
जहाँ पे देखे आँखे नम
बह जाती मन मे धारा सी
चलती है फिर बेप्रवाह
तोडे हर बन्धन मर्यादा
भाव सिन्धु मे पाती थाह
शब्द औ सोच है दो किनारे
तोडे कविता सारे के सारे
रचना की धारा म बहकर
सागर हुई सागर मे मिलकर
जिसका रहा न कोई किनारा
समाया कविता मे सिन्धु सारा
***************************************

५०.क्या लिखुँ...........?

क्या लिखुँ और कैसे लिखुँ?
कुछ भी समझ मे आए ना
सोच समझ के लिखने बैठूँ
सोच भी वाणी पाए ना
जाने ये शब्द कहाँ जाते है?
सोचने पर भी नही आते है
किसी अन्धेरे कोने मे ये
जाकर कही पे छिप जाते है
पर जब नही लिखने की सोचूँ
उमड घुमड कर घिर आते है
गरजते है फिर हृदयाकाश पर
ढँढते है कोई ऐसा पर्वत
जिससे बरसे ये टकरा कर
मुक्त हो ये जलधार बहा कर
राहत मिलती है तब जाकर
तृप्त हो जब ये वाणी पाकर
जाने कहाँ कहाँ से आते
बरस के ही बस मुक्ति पाते


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५१.जीवन के रास्ते

वो चेहरे की झुरियाँ
वो धवल बाल
गहराई आँखे
दन्तविहीन
वो काँपती आवाज़
दिल मे ममता
अनुभव से परिपक्व
माँ ,दादी या किसी की नानी
करती है ब्यान अपने आप मे
एक जीवन की कहानी
जिसने देखे
न जाने कितने उतार चढाव
और अब आ गया
उम्र का वो पडाव
जहा पर फिर से
जीने की चाहत
लेती है अँगडाई
---------
---------
वो बच्चो सी जिद्द
तरसती आँखे
छोटी सी ख्वाहिशे
रूठना ,मनाना
जी का ललचाना
साथ की चाहत
सोच मे भोलापन
चाहना बस अपनापन
दिलाता है अहसास
कि
लौट आया है
फिर से
वही मासूम सा बचपन
--------------
--------------
जीवन भर न जाने किये
कितने ही त्याग
लगाई
न जाने कितने ही
अरमानो को आग
सबको खिला कर खाना
छुप -छुप कर आँसु बहाना
जीना बस दूसरो के लिए
नि:स्वार्थ ही उपकार किए
वही
कितनी मजबूर ,
लाचार और बेबस है आज
कहाँ रहा उसका अपना कोई अन्दाज
बिलखती है, रोती है
बस अकेले ही सोती है
छोड चले
जवानी
काले बाल,
मुँह मे दान्त
अपने साथ
कहाँ गए
वो अनुभव
जो हासिल किए थे
स्वयम को गला कर
--------------
--------------
चेहरे की झुरियो
के बीच फैलती
एक़ मुस्कान
कहती है मानो चिल्ला कर
मेरे दिल मे भी है अरमान
देखो मेरी वास्त्विक सुन्दरता
जो प्रदान की है मुझे
उस हर पल ने
जिन्होने कभी खुशी
और
कभी गम का लेप किया
आसुँओ ने धोया
वक्त ने पीटा
हालात ने कभी
हँसाया तो कभी रुलाया
और
सबने मिलकर मेरा
यह रूप बनाया
यह लकीरे उसी की देन है
जिनमे लिखी है
लम्बी दास्तान
कभी यह भी थी नादान
पर जब पाया इन्होने रूप
तो ढल गई थी जवानी की धूप
सान्ध्य बेला,आगे अन्धकार
रह गए बस विचार
----------------
----------------
जिम्मेदारियो का बोझ निभाते निभाते
निकल आए इतनी दूर
कि छूट गए सब जीवन के रास्ते
वो भी छोड गए
खुद को छोडा जिनके वास्ते

********************************************



५2.मृगतृष्णा


एक दिन
पडी थी
माँ की कोख मे
अँधेरे मे

सिमटी सोई
चाह कर भी कभी न रोई

एक आशा
थी मन मे
कि आगे उजाला है जीवन मे

एक दिन
मिटेगा तम काला
होगा जीवन मे उजाला

मिल गई
एक दिन मन्जिल
धडका उसका भी दुनिया मे दिल

फिर हुआ
दुनिया से सामना
पडा फिर से स्वयम को थामना

तरसी
स्वादिष्ट खाने को भी

मर्जी से
इधर-उधर जाने को भी
मिला
पीने को केवल दूध

मिटाई
उसी से अपनी भूख

सोचा ,
एक दिन
वो भी दाँत दिखाएगी

और
मर्जी से खाएगी

जहाँ चाहेगी
वही पर जाएगी

दाँत भी आए
और पैरो पर भी हुई खडी

पर
यह दुनिया
चाबुक लेकर बढी

लडकी हो
तो समझो अपनी सीमाएँ

नही
खुली है
तुम्हारे लिए सब राहे

फिर भी
बढती गई आगे

यह सोचकर
कि भविश्य मे
रहेगी स्वयम को खोज कर

आगे भी बढी
सीढी पे सीढी भी चढी

पर
लडकी पे ही
नही होता किसी को विश्वास

पत्नी बनकर
लेगी सुख की साँस

एक दिन
बन भी गई पत्नी

किसी के हाथ
सौप दी जिन्दगी अपनी

पर
पत्नी बनकर भी
सुख तो नही पाया

जिम्मेदारियो के
बोझ ने पहरा लगाया
फिर भी
मन मे यही आया

माँ बनकर
पायेगी सम्मान

और
पूरे होन्गे
उसके भी अरमान
माँ बनी
और खुद को भूली

अपनी
हर इच्छा की
दे ही दी बलि

पाली
बस एक ही
चाहत मन मे

कि बच्चे
सुख देन्गे जीवन मे

बढती गई
आगे ही आगे

वक़्त
और हालात
भी साथ ही भागे

सबने
चुन लिए
अपने-अपने रास्ते

वे भी
छोड गए साथ
स्वयम को छोडा जिनके वास्ते

और अब
आ गया वह पडाव

जब
फिर से हुआ
स्वयम से लगाव

पूरी जिन्दगी
उम्मीद के सहारे
आगे ही आगे रही चलती

स्वयम को
खोजने की चिन्गारी
अन्दर ही अन्दर रही जलती

भागती रही
फिर भी रही प्यासी

वक़्त ने
बना दिया
हालात की दासी

उमीदो से
कभी न मिली राहत

और न ही
पूरी हुई कभी चाहत

यही चाहत
मन मे पाले
इक दिन दुनिया छूटी

केवल एक
मृग-तृष्णा ने
सारी ही जिन्दगी लूटी

*********************************
५३.नारी शक्ति

हे विश्व की सँचालिनी
कोमल पर शक्तिशालिनी
प्रणाम तुम्हे नारी शक्ति
क्या अदभुत है तेरी भक्ति
तू सहनशील और सदविचार
चुपचाप ही सह जाती प्रहार
तुझसे ही तो जग है निर्मित
परहित के लिए तुम हो अर्पित
तुमने कितने ही किए त्याग
दी अपने अरमानो को आग
जिन्दा रही ब दूसरो के लिए
नि:स्वार्थ ही उपकार किए
खुशियाँ बाँटी बेटी बनकर
माँ-बाप हुए धन्य जनकर
अर्धान्गिनी बनकर किए त्याग
समझा उसको भी अच्छा भाग
माँ बन काली राते काटी
बच्चे को चिपका कर छाती
जीवन भर करती रही सघर्ष
चाहा बस इक प्यारा सा घर
नही पता चला बीता जीवन
हर बार ही मारा अपना मन
....................
....................
ऐसी ही होती है नारी
वही दे सकती जिन्दगी सारी
उस नारी के नाम इक नारी दिवस
खुश हो जाती है इसी मे बस
नही उसका दिया जाता कोई पल
नारी तुम हो दुनिया का बल
तुझमे ही है अदभुत हिम्मत
तेरी शक्ति के आगे झुका मस्तक
**************************
५४.अध्यापक दिवस

हम भारत के वासी है
गुरु परम्परा के अनुगामी
नत् मस्तक हो गुरु चरणो मे
हम बना ले अपनी जिन्दगानी
कुम्भकार गुरु ,शिष्य है घडा
गुरु तो ईष्वर से भी है बडा
झुक कर गुरु के श्री चरणो मे
शिष्य पैरो पर होता खडा
गुरु तो वह दीपक है जलकर
जो स्वयम भस्म हो जाता है
मिटते-मिटते भी औरो को
जो प्रकाशित कर जाता है
श्री राम कृष्ण औ हनुमान
भी गुरु के आगे झुकते थे
गुरु के ही एक इशारे पर
न कदम किसी के रुकते थे
गुरु वाणी तो अमृत वाणी
जो शुभ ही शुभ फल देती है
और कष्ट मिटा कर जीवन के
भाग्य को उदय कर देती है
गुरु तो सदैव है पूजनीय
गुरु की निन्दा है निन्दनीय
जीवन की जो राह दिखाता है
वह गुरु सदैव है वन्दनीय
गुरु शिष्य नाता है अटूट
नही डाले इसमे कोई फूट
यह सभ्यता थी भारत की
कुछ दुष्टो ने जो ली है लूट
दुख तो है यह पावन नाता
क्यो रास किसी को नही आता
न गुरु तो न शिष्य है वही
सभ्यता भारत की कहाँ गई
पैसे के बन्धन मे बन्ध गए
गुरु शिष्य दोनो आपस मे
न प्रेम प्यार का सम्बन्ध है
न कोई भावुकता मन मे
बस एक दिवस अध्यापक दिवस
बस यही गुरु शिष्य परम्परा
निभानी है हमे उस भारत मे
जिसके बल पर यह देश खडा
वह गुरु कहाँ ? जो दिखला दे
मार्ग सत्य का शिष्य को
जल कर के स्वयम दीपेक की तरह
उज्ज्वल कर दे जो भविष्य को
माना जीवन यापन के लिए
पैसा भी बहुत जरूरी है
पर भूल जाएँ गुरु के नियम
ऐसी भी क्या मजबूरी है
सत्य का मार्ग अध्यापक
है जो अपना ही नही सकता
इस राष्ट्र का निर्माता वह
अध्यापक हो ही नही सकता
नही कोई हक कहलाने का
अध्यापक उस इन्सान को
जो केवल पैसे की खातिर
बेचे अपने इमान को
क्षमा चाहती हूँ फिर भी
कडवा सच्च मुझको है कहना
लालची ,अयोग्य तो छोड ही दे
अध्यापक बनने का सपना

*************************

५५.कलम है कि रुकती नही

उमडते घुमडते जजबात
टकराते
बरस जाते
होते फनाह
उठते
घिर जाते
नश्वर हो कर भी अनश्वर
हर बार नया रूप
अरूप
बरसे तो सुखद
न बरसे तो दुखद
बरसते
स्वयम को मिटाने के लिए
मुक्ति पाने के लिए
मुक्त होकर होते अमर
हर क्षण जवाँ ,अजर
बह जाते अश्रु बनकर
मिट जाते
पर
पा जाते वाणी
कह जाते
हर बार नई कहानी
कब , कहाँ , कैसे आ जाएँ ?
कोई भी इनको समझ न पाए
हर बार नई क्रान्ति
नई तृष्णा
ऐसी प्यास
जो कभी बुझती नही
पकडे रखती
कलाकार की कलम
जो कभी रुकती नही

************************

५६.सडक आदमी और आसमान


खुली सडक बनाती ह अपना मार्ग
करती है सारी बाधाओ को पार
टूटती है, मिटती है
लेकिन बता देती है डगर
चलता है आदमी उस रस्ते पर
छोडता है अपने कदमो के निशान
टिका कर पैर जमी पर
देखता है ऊँचा आसमान
आसमान...
जहा पलते है हजारो सपने
सपने......
जिनमे रहते है अपने
अपने .....
जिनसे खून का रिश्ता
रिश्ता ....
जिसमे भरा है स्वार्थ
स्वार्थ......
जिसमे पलती है नफरत
नफरत......
जिसमे छिपा है लालच
लालच
जिसमे गिरते है इन्सान
इन्सान....
जो बन जाते है हैवान
हैवान......
जिसमे नही कोई भावनाएँ
वो भावनाएँ.....
जो इन्सान को इन्सानियत सिखाएँ
इन्सानियत.....
जिसमे हो केवल आच्छाई
अच्छाई....
जिसमे बसती हो सच्चाई
सच्चाई....
जिससे होता हो कल्याण
कल्याण....
जो बन जाए सुन्दरता
सुन्दरता.....
जिसमे छिपे हो ऊँचे विचार
विचार.....
जो छू ले आसमान
और सडक पर चलता आदमी
छू कर ऊँचाई
पूरे करे अरमान
****************************

५७.तीसरी आँख

सृष्टि
सन्हार करता
महादेव शिव का
खुला
रहता है तीसरा नेत्र
मानव
भी कहाँ है पीछे
छू
लिया हर क्षेत्र
इज़ाद
कर ली तीसरी आँख
बना ली
दुनिया भर मे अपनी साख
रखती है
यह नज़र अपलक
हर
आने जाने वाले की
दिखती इसमे झलक
देखो
वह रेलवे स्टेशन का दृश्य
ढूँढती है.......

माँ
रूठे हुए बेटे को
पत्नी
जिम्मेदारियो से
भागे पति को
बाप
पगडी रौन्द कर
घर से भागी बेटी को
भिखारी दाता को ,
लुटेरा जेब को
टी टी महाश्य
बिना टिकट पैसन्जर को
लोह पथ गामिनी
सब की स्वामिनी
आई ,और
आ के चली गई
और
यह तीसरी आँख
चुपचाप देखती रही
इधर देखो
मनाया जा रहा है
किसी त्योहार का जश्न
सर से
सरकता है दुपट्टा
फटती है चोली
सभी के सभी
मूक दर्शक और
कुछ
ही क्षणो मे
लुटती है निस्बत
वर्णन
करती है
आँखो देखा दृश्य तीसरी आँख
और
फिर
सबूत तलाशती पुलिस
देखती है
सरे बाज़ार
कटती है जेब
कसी
जाती है
राह चलती
लडकियो पर फब्तियाँ
देख कर
अनदेखा करते लोग
देखती है
यह तीसरी आँख
सारा नजारा
बयाँ
करती है हाल सारा
बताती है
अपराध
पर अपराधी है गायब
वो
बैन्क मे
देखती है खुलते लॉकर
तनती
कर्मचारियो पर पिस्तौल
दिखाई
देती है
लुटेरो की पीठ
पीठ पर घुपते छुरे
चेहरे
पर नही दिखते
पीछे से
दी गई है चेतावनी
चेहरा
न दिखाना
नही तो
लगेगी
जिन्दगी भी डरावनी
अरे
यह तीसरी आँख देखती है
गुरुकुल मे भी
घूमते शिष्यगण
हाथ मे
थामे हुए गन
निशाना लगाती पिस्तौल
ढेर होती लाशे
दिखते मुफ्त के तमाशे
तो
क्या है
नाबालिग है बेचारे
क्षमा करो उनके अपराध सारे
बच्चे है
सुधर जाएँगे
एक दिन यही तो देश चलाएँगे
वो देखा
उठता धुँआँ
और फिर भभकती आग
शायद
किसी की
बेटी नही बहु चढी है
दहेज की बलि
बलि का
देवता भी तो भूखा था
पकाया है
उसके लिये खाना
बहुत
अर्से से
मिला जो नही था खजाना
अब देखो
सरकारी अस्पताल मे
मरीज
कुरलाते है किस हाल मे
डॉक्टर साहब आते है
मरीजो को हाथ लगाते है
मोबाईल पर बतियाते हुए
अपने कारनामे बताते हुए
मरीज़ की नस को छुआ
और आगे निकल गए
वो देखो
माँ बनने वाली है
कोई
नन्ही जान
दुनिया मे आने वाली है
डॉक्टर साहब पीटते है माथा
इसको भी अभी आना था
जब
मुझे एक
पार्टी मे जाना था
यहाँ
बेरोजगारो की हडताल
करते बहुत से स्वाल
चुनाव
समीप है
इसी लिए सब नेता चुप है
विरोधी पक्ष का नेता आता है
मरण व्रतधारियो को जूस पिलाता है
और
अपनी पार्टी मे शामिल
होने का देता है न्यौता
समय का
करता है सदुपयोग
क्योकि सक्रिय है चुनाव आयोग
अब
बेफिक्र पाँच साल
पाँच साल बाद ही होगी हडताल
तब तक
काम चलाते है
अपनी सरकार बनाते है

यह
तीसरी आँख
देखती - दिखाती है सबकुछ
पर
नही है इसकी जुबान
आवाज उठाना
नही इसका काम

इसके
पीछे है
बी. पी. के नन्हे हाथ
( बी.पी.= भारतीय पुलिस)
जो
नही काबिल अभी
कि
पकड ले
इतनी बडी सौगात
केवल
दो आँखे है देखने को
दो कान है सुनने को
नन्हे से
हाथो मे नही है इतनी शक्ति
बस
यह तो करते है
किसी और आँख की भक्ति

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५८.होली

होली आई , खुशियाँ लाई
खेले राधा सँग कन्हाई

फैन्के इक दूजे पे गुलाल
हरे , गुलाबी ,पीले गाल

प्यार का यह त्योहार निराला
खुश है कान्हा सँग ब्रजबाला

चढा प्रेम का ऐसा रँग
मस्ती मे झूम अन्ग-अन्ग

आओ हम भी खेले होली
नही देन्गे कोई मीठी गोली

हम खेले शब्दो के सँग
भावो के फैन्केगे रन्ग

रन्ग-बिरन्गे भाव दिखेन्गे
आज हम होली पे लिखेन्गे

चलो होलिका सब मिल के जलाएँ
एक नया इतिहास बनाएँ

जलाएँ उसमे बुरे विचार
कटु-भावो का करे तिरस्कार

नफरत की दे दे आहुति
आज लगाएँ प्रेम भभूति

प्रेम के रन्ग मे सब रन्ग डाले
नफरत नही कोई मन मे पाले

सब इक दूजे के हो जाएँ
आओ हम सब होली मनाएँ
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A poem tribute to TIBETIAN who are fighting for freedom
५९.आजादी की गुहार



ये तरसती आँखे
हालात की झुरियाँ
वक़्त के थपेडो से
जर्जर हड्डियाँ
बूढी ख्वाहिशे
कम्पकम्पाती आवाज़
करते है ब्यान
अपने आप मे एक दास्तान

कि ,
मरे है हर पल
पीकर गुलामी का जहर

जिए है
देखकर
अत्याचारियो का कहर

हर क्षण
खौफ समाया रहा मन मे

नही मिला
हर्ष कभी जीवन मे

अन्तर्मन मे
बैठी रही
कोई न कोई अनहोनी

कि
अभी पडेगी
किसी न किसी
अपने की जिन्दगी खोनी

खौफ ने
डाला मन मे ऐसा डेरा

कि नही
महसूस हुआ
कभी खुशियो का फेरा

कभी
हँसी न आई
चेहरे पर यही सोचकर

कि
न जाने
किस घडी
सूना हो जाए घर

और
मिल जाए
सदा का रोना

नही
चाहते थे
उस अदृश्य हँसी को खोना

इसी लिए
रखा छुपाकर
अन्दर ही अन्दर दबाकर

लग जाए
न किसी की बुरी नज़र

बस
ऐसे ही
काट लिया जिन्दगी का सफर

सारा
जीवन तो
मर मर के बिताया

और
अब जब
अन्त समय आया

जी लेना
चाहते है जी भर
मरे तो है ताउम्र

अब
तो हमे दे दो
खुल कर जीने की आजादी
लौटा दो वो हँसी

जिसकी
अनजाने खौफ ने
की जीवन भर बर्बादी


अब तो
बन्द करो अत्याचार
पनपने दो सदविचार

ता कि
हम भी जी सके
जीवन रस पी सके
ले लेने दो हमे भी
वास्तविक जिन्दगी का रसास्वाद

अब तो
करदो हमे आज़ाद
गुलामी से ,अत्याचार से ,खौफ से
और गहराई तक समाई अप्रिय तन्हाई से
दे दो आज़ादी हमे अब तो दे दो
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६०.मुसाफिर

जीवन पथ
का पथिक
थक हार के बैठा
तरु की छाया, सुस्ताया
बन्द आँखो ने
सपना सजाया
मोह ने भरमाया ,ललचाया
खुली आँख
तो
कडवा सच्च नज़र आया
कि..............
सामने कुछ न बचा था
केवल खालीपन
सपनो
मे ही
बिता दिया जीवन
तय
कर डाली
लम्बी डगर.............
गिरते सँभलते
चलता रहा
आँख नही खोली मगर
न ही
तृप्त किए नयन
न लिया
कभी दो पल भी चैन
देख कर
भी किया अनदेखा
नही
बदली भाग्य की रेखा
चाह कर
भी न खोली जुबान
दबा
लिए अपने अरमान
रह गया
एक ऐसा मुसाफिर बनकर
जो
चलते-चलते
पहुँचा हो उस मोड पर
जहाँ
खत्म हो जाती है
हर जीवन डगर


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Seema Sachdev
M.A.HINDI,M.ED.,PGDCTTS,GYANI
7a,3rd cross
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