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27 नव॰ 2008

जान की होली

जान की होली

बम धमाकों की आवाज को
मुनिया
दीवाली के पटाखों का
शोर समझी
और
जिज्ञासु भाव से माँ के
गिर्द मँडराते हुए बोली....
यह कौन सा त्योहार है माँ
दीवाली तो नहीं.....?
माँ , खामोश निरुत्तर
आँचल मे छुपाती मुनिया की
जिज्ञासा नही शान्त कर पाई
बस
गमगीन हो आँसु पी गई
और मुनिया
माँ के भाव तो नही समझी
बस दुबल गई
माँ के आँचल मे
और फिर बाल-स्वभाव वश
बोलो न माँ.....
यह किसका धर्म है
जो हमारा नही....?
माँ खामोश
एक्टक देखती नन्ही मुनिया को
चिपका लेती है सीने से
पर मुनिया है कि मानती ही नहीं
बोलो न माँ
इन पटाखों से
सब डरते क्यों हैं...?
माँ खामोश....
झर-झर झरते आँसु
खामोश इन्तजार मे
मुनिया के प्रश्न तीर की भान्ति चुभ गए
सीने की अनन्त गहराई मे
................
................
और अब
इन्तजार खत्म
सदा-सदा के लिए खत्म
तीन रँगों मे लिपटा
चार जवानों के कन्धे पर ताबूज
और माँ
जो अब तक खामोश थी
बरस पडी नन्ही मुनिया पर
मिल गई तुम्हें शान्ति
हो गई तस्सली....
देख....
देख इसको
और पूछ इससे....
कौन सा त्योहार मनाया इसने
अब मुनिया खामोश
जैसे समझ गई बिन बताए
सारी ही बातें
कि
यह मौत का त्योहार है
आतंकवाद का धर्म है
हम नही मनाते यह त्योहार
क्योंकि......
यह दीवाली नही....
होली है .....
जान की होली

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चित्र साभार हिन्दयुग्म से

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

Great Poem...
Bahut Bahut Badhai...