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15 अग॰ 2010

आजादी दिवस – नारी ताडन की अधिकारी और पुरुष ……….?

नमस्कार ,

आप सबको आजादी दिवस की हार्दिक बधाई एवं शुभ-कामनाएं | आजादी की चौन्सठवीं सालगिरह और सदी पूरी करने की तरफ तेज़ी से बढ़ते हमारे कदम | इन चौंसठ वर्षों में न जाने कितने उतार चढ़ाव आए होंगे और कुछ एक के तो भुक्त-भोगी हम भी हैं | जिस तरह हमारी सोच , हमारा रहन सहन , हमारे संस्कार , हमारी सभ्यता और यहाँ तक की रस्मों रिवाजों में भी विशालता आई है , उससे तो वास्तव में लगता है की हमारा देश दिन दुगुनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा है और हमें गर्व है कि हम इस महान देश के नागरिक और भारत माँ की संतान हैं | एक युग बदल गया है लेकिन एक बात जिसे कहते हुए मुझे दुःख हो रहा है कि हमारी सोच आज भी उसमें संकीर्ण ही है | भाषण दिए जाते हैं , नारे बुलंद होते हैं , आवाज उठती है और जब वास्तविक रूप सामने आता है तो बदलाव के नाम पर होता कुछ भी नहीं , हंगामा अलग से खडा हो जाता है | इसमें नासमझ और कम पढ़े लिखे ही नहीं बल्कि पढ़े-लिखे लोगों की जमात भी शामिल है —-वो है नारी आज़ादी की बात | जिसे हमारा समाज आज भी अपना नहीं पाया है | बात सब करते हैं लेकिन सोच तो वही है कि —भगत सिंग जैसे वीर पैदा हों लेकिन पड़ोसी के घर में |
न जाने एक पंक्ति कविवर तुलसीदास जी की सब की जुबान पर कैसे घर कर गयी कि —-नारी ताडन की अधिकारी | भाव समझा नहीं बस शब्द हैं तो सच्चे तुलसी भक्त होने का सबूत तो देना ही है , ऐसा नहीं कि सबकी सोच एक जैसी है लेकिन अक्सर देखने को मिलता है कि ये सोच मध्यम वर्ग में ज्यादा देखने को मिलाती है | आज भी कुछ लोगों का मानना है कि नारी ताड़ना की ही अधिकारिणी है और अगर उसे समाज में रहना है तो उसे पुरुष द्वारा बनाए नियम -कानूनों का पालन करना ही होगा अगर नहीं करेगी तो जबरदस्ती करवाया जाएगा —–
क्यों , आखिर ये समाज के ठेकेदार क्यों भूल जाते हैं कि नारी भी इंसान है , उसकी भी सोच है , वह भी काबिलियत रखती है | क्यों आज भी कुछ लोग ये बात अपने गले से नहीं उतार पा रहे हैं कि नारी कोमल ही नहीं वीरांगना भी है और पुरुष की ताकत है | पुरुष और नारी जीवन रूपी गाडी के दो पहिए हैं , किसी एक के भी अभाव में दुसरे का कोइ मूल्य है ही नहीं , फिर क्यों पुरुषवादी समाज उसे पाँव की जूती बना कर रखना चाहता है | क्यों नहीं अपने अहम को मिटा नारी को बराबर का अधिकार दे सकता ?
भले ही नारी पर होने वाले जुल्मों के खिलाफ आवाज़ उठाई जाती रही है लेकिन सच्चाई ये है कि घरेलू हिंसा जिसमें अक्सर नारी प्रताड़ित होती है में कुछ भी फर्क नहीं पड़ता | इसके लिए जिम्मेदार कौन —-क्या नारी ? तो मैं कहूंगी हाँ बिलकुल नारी ही इस घरेलू हिंसा की जिम्मेदार है क्योंकि उसकी सोच विशाल है , असीमित सहनशीलता है , भावुकता है ….| हाँ यही कमियाँ हैं जो नारी को कमजोर बनाती हैं और यही उसकी ताकत भी है जिसके बल पर वह न जाने कितने जुल्म सह जाती है , अपने आंसू अन्दर ही पी जाती है और लम्बी आयु जी जाती है | क्या यही उसकी गलती है कि उसके अन्दर एक माँ की ममता है , एक कोमल ह्रदय है ? ये गुण तो नारी का गहना हैं , अगर यही गुण नारी में न होते तो न जाने दुनिया कैसी होती ? एक बात तो तय है कि दुनिया प्यार विहीन होती |
प्रश्न उठता है कि जब नारी पुरुष की ताकत है , नारी के बिना तो मानव जीवन का अस्तित्त्व ही संभव नहीं और नारी किसी पर तब तक जलम कर ही नहीं सकती जब तक उस पर कोइ जुल्म न हो | वह तो प्यार बाँट सकती है | खुद जल कर दूसरों का जीवन रौशन करती है , फिर भी उसे ताड़ना की अधिकारी ही क्यों माना जाता है | वह पुरुष ताड़ना का अधिकारी क्यों नहीं जो केवल अपने शारीरिक बल पर हृदयहीन होकर नारी पर जुल्म करता है ? क्या जो पुरुष करता है वह सब सही है ? क्या पुरुष के कुकृत्यों के लिए उसे ताड़ना नहीं चाहिए ?
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6 अग॰ 2010

जब पुरुष नें कहा तो कमाल हो गयी , नारी नें कहा तो वो छिनाल हो गयी..........?

बातों से निकली बात बात बेगानी हो गयी


दबी थी जो मस्तक में , अब कहानी हो गयी

अनभव को जीकर छोड़ दो

हर गम से नाता तोड़ दो

बोला जो एक शब्द भी

तो नादानी हो गयी

तुम सहती हो बस सहती रहो

कुछ कहना हो खुद से कहती रहो

कह दी जो मन की बात

तो बदजुबानी हो गयी

न पार करो अपनी सीमा

मुश्किल हो जाएगा जीना

लांघा जो एक कदम तो

इज्जत पानी हो गयी

नारी का घूंघट उतरा

तो धमाल हो गयी

कह दी जो मन की बात

तो वो छिनाल हो गयी

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जो कहना हो खुलकर बोलो

जब चाहे जहां भी जो खोलो

कह दी जो अपनी बात

तो सोच विशाल हो गयी

जब पुरुष नें कह दी बात

तो बात कमाल हो गयी ,

जब नारी उसी पे बोली

तो वो छिनाल हो गयी ..........



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6 जुल॰ 2010

क्या करें क्या न करें , ये कैसी मुश्किल………..?

bahut बार ऐसे हालात हमारे सामने पैदा हो जाते हैं कि हम समझ ही नहीं पाते कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं । बातें बहुत छोटी-छोटी , पर इतनी गंभीर कि बडे-बडों को निरुत्तर करदें । जी हां , ऐसा ही वाक्या कुछ मेरे साथ भी हुआ और सोचने पर मजबूर हूं कि आज के हालात में हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं । हुआ कुछ यूं कि हमारे साहिबजादे ( जिसनें ३० जून को ही साढे चार साल पूरे किए है ) शुभम को कहानियां सुनना और सुनाना इतना पसंद है कि जब तक कोई कहानी नहीं सुन लेते तब तक न खाना , न होम-वर्क करना और न सोना मतलब हमें हर बार उन्हें कोई न कोई कहानी सुनाकर बात मनवानी पडती है और उसके बाद हम पर जो प्रश्नों की बौछार होती है , सच में उससे तो मुझे डर लगने लगा है । अब तो मेरे मुंह से गलती से भी कोई शब्द भी निकल गया तो उसके लिए मुझे बताना पडेगा कि यह शब्द मैनें क्यों बोला । क्यों हंसे , चुप क्यों हो , फ़ोन पर किससे बात की , पापा से क्या बोला , पापा नें क्या बोला , क्यों बोला , कहां जाना है , क्यों जाना है…………? ऐसे हजारों प्रश्न जिनका सामना मुझे आजकल करना पड रहा है 

                                                    मैं हर प्रश्न का जवाब (कोशिश करती हूं दे सकूं )ज्यादातर देती भी हूं । एक उदाहरण देखिए ….
१. बिल्ली चूहे क्यों खाती है , कुत्ता क्यों नहीं खाता ?
२. सूरज सुबह ही क्यों आता है रात को क्यों नहीं ?
३. सूरज में रोशनी क्यों है ?
४. गाय दूध क्यों देती है ?
 ५. हम खाना मुंह से क्यों खाते हैं ?
६. अगर चंदा मामा के साथ तारे न हों तो क्या होगा ?
७. पक्षी उडते क्यों हैं ? हम क्यों नहीं उड सकते ?
८. बिल्ली हमसे बात क्यों नहीं करती ?
 जी हां , ऐसे सैंकडों प्रश्न । ऐसा नहीं कि इन प्रश्नों के उत्तर नहीं है । हैं मगर हम अगर इतने छोटे से दिमाग में इतना ग्यान उडेलने लगें तो क्या उनका नन्हा सा मन पचा पाएगा । मैं जितना भी उसे संक्षिप्त में समझाने का प्रयास करती हूं उसकी जिग्यासा और बढती जाती है । खैर मैं बात कर रही थी कहानियों की कि जब तक हमारे नन्हे शैतान को कहानी सुना न दो और उसकी कहानी सुन न लो तब तक कोई काम आगे बढता ही नही । कहानी भी कोई ऐसी वैसी नहीं उसी टापिक पर कहानी सुनाओ जिसको सुनाने की फ़रमाईश की जाएगी । मतलब अच्छी-खासी परीक्षा होती है हमारी बुद्धि की ।आन-द-स्पोट हमें बताया जाता है कि इस विषय पर कहानी सुनाओ और हमें सोचने का समय भी नहीं दिया जाता । अब पाठकगण भले ही इस बात को समझें या न समझें लेकिन हमारे मित्र लेखकगण तो भली-भांति समझते हैं कि एक कविता/कहानी लिखने में कितने मक्खी-मच्छरों को मारना पडता है कि कहीं मन के किसी कोने में कोई भाव जग जाए और कलम चल ही पडे ।
                                                   बडों के लिए कुछ भी चलेगा क्योंकि आजकल उतना समय किसके पास है कि किसी और की रचना को मन लगाके पढो और फ़िर उस पर समीक्षा करो । हां टिप्पणी करनी पडती है , वर्ना आपको कोई पूछेगा ही नहीं । उसके लिए तो आसान सा तरीका है , बिना पढे तारीफ़ करदो । इसके तीन फ़ायदे हैं – एक तो आपको पढने में अपना समय बर्बाद नहीं करना पडता और दूसरा अगर तारीफ़ की जाए तो कोई बुरा भी नहीं मानता उर तीसरा यह कि आपकी रचना पर कम से कम एक टिप्पणी तो अवश्य मिल जाएगी । एक और आसान सा तरीका भी है वो यह कि सबकी टिप्पणियां पढलो और उसी के मुताबिक अपनी टिप्पणी भी चेप दो , तो काम आसानी से चल जाता है । किसने क्या लिखा , कितनी मेहनत से लिखा उससे क्या लेना-देना । अब हमारे बारे में तो कोई लिखने से रहा जो इसकी प्रवाह की जाए । लेकिन जब बात बच्चों के लिए लेखन की आती है तो भैया बहुत होशियार रहना पडता है । ये आजकल के बच्चे गलती पकडने में उस्ताद हैं ।पहले खुद बच्चा बनो , उनके मानसिक स्तर पर सोचो और फ़िर लिखो – बहुत टेढी खीर है बच्चों के लिए लिखना और आन-द-स्पोट जब मुझे कहानी सुनाने के लिए कहा जाता है तो मेरी हालत क्या होती होगी , समझने वालों को अवश्य मुझसे हमदर्दी होगी ।
                                     अब देखिए न कल ही शैतान बेटे को पढा रही थी – अ से अनार , आ से आम , इ से इमली , ई से ईख , उ से उल्लू…….। बाकी सब तो चला लेकिन उल्लू जी ने हमें ऐसा फ़ंसाया कि क्या बताएं बस उल्लू का नाम लिया और झट से फ़रमाईश आ गई – उल्लू की कहानी सुनाओ न । अब उल्लू को जानते तो हैं , बहुत बार खुद भी तो बनते हैं , अब कैसे बताती कि हम कब-कब कैसे कैसे उल्लू बन जाते हैं , कोई जान-बूझकर थोडे ही बनते हैं । कैसे बताती कि उल्लू बनना कितना आसान है और बनाना कितना मुश्किल । मुझमें तो इतनी समझ कहां है कि मैं किसी को उल्लू बना सकूं । तो उल्लू जी के बारे में क्या बताऊं सोच ही रही थी कि फ़िर से -मम्मी आप सोच क्या रहे हो , उल्लू की कहानी सुनाओ न । हमारे दिमाग की घण्टी बजी और हमें पहली बार अहसास हुआ कि हममें भी प्रेजेंस आफ़ माइंड नाम का कोई कीटाणु है , हमें डा. डंडा लखनवी जी की कविता याद आ गई
उल्लू जी स्कूल गए
बसता घर में भूल गए
मिस बुलबुल नें टेस्ट लिया
टेस्ट उन्होंनें नहीं दिया
सारे पक्षी हीरो थे
उल्लू जी ही ज़ीरो थे
बस हमनें उसी को कहानी बनाकर लम्बा खींचकर सुना दिया । आदत वश हम बींच-बीच में पक्षियों के जगह बच्चे शब्द का प्रयोग कर बैठे तो शैतान दिमाग नें वहीं पर हमें कितनी बार रोका बच्चे नहीं पक्षी और हम उल्लू की कहानी सुनाते-सुनाते कितनी बार रुके । अब यहां एक बार और थोडा रुकना पडेगा हमें – कहीं फ़िर से उल्लू न बन जाएं , पहले आप सब से पूछ ही लेते हैं कि मैनें डा. डंडा लखनवी जी की कविता को कहानी बनाकर सुनाया तो कोई चोरी तो नहीं की न , कल को पता चले मुझ पर की चोरी का मुकदमा ठोक दिया है और मैं अच्छी खासी उल्लू बन गई हूं । अगर यह चोरी है तो प्लीज़ मुझे जरूर बताएं ।
                                                     अभी तीन-चार दिन पहले न जाने हमें क्या सूझी कि बचपन से रटी-रटाई गुरु-शिष्य की कहानी एकलव्य की कहानी सुना बैठे । गलती तो हमारी ही है , शायद इतने छोटे बच्चे को हमें यह कहानी नहीं सुनानी चाहिए थी लेकिन हमारी बुद्धि में बात जरा देरी से ही समझ आती है । हमनें कहानी सुनाई , अब दोबारा आपको नहीं सुनाऊंगी , जानती हूं आप सब भी यह कहानी बचपन से सुनते आ रहे हैं तो अब तक तो सुन-सुनकर पक चुके होंगे । सो अपने प्रिय पाठकों ( जो थोडे-बहुत हैं , को न पकाते हुए)को बस वही बताऊंगी जो मेरे साथ हुआ । हां तो शुभम नें कहानी बडे ध्यान से सुनी और अंत में हमने हर बार की तरह फ़िर से जानना चाहा -कि कहानी कैसी लगी तो हमारी इच्छा के विपरीत जवाब मिला – बस छोटी से अच्छी लगी और बडी वाली गंदी । मेरी सारी मेहनत पर पानी फ़िर गया था । मुझे जानना था कि जो कहानी गुरु-शिष्य का नाता समझाने में दुनिया की सबसे बडी उदाहरण है और हमें दादा-दादी , मम्मी-पापा , अध्यापकगण सुना-सुनाकर समझाने का प्रयास करते थे और जिसे हम सुनकर ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेते थे , क्या मजाल कि आगे से कभी कोई प्रश्न करने की हिम्मत भी की हो ,उस कहानी को नन्हे से बच्चे नें सिरे से नकार दिया , बात मुझे कुछ हज़म नहीं हुई और कहानी पसंद न आने का कारण जानना अब मेरे लिए सबसे जरूरी था – जो जवाब मिला सुनकर मैं सोचने पर मजबूर थी |
 उसका जो जवाब था – गुरु नें उसे पढाया क्यों नहीं ?तो गुरु नें एकलव्य का अंगूठा क्यों मांगा , उसने गंदी बात क्यों की , एकलव्य को पेन हुआ होगा न । एकलव्य को भी अपना अंगूठा नहीं काटना चाहिए था न ।
संयोग से उसी दिन उसकी ड्राइंग क्लास भी थी और जब मैं उसे ले जा रही थी तो रास्ते में शुभम नें मुझसे बोला – आज मैं बस देखुंगा , कुछ करुंगा नहीं । क्यों तुम क्यों नहीं करोगे ? एकलव्य भी तो देखकर सीख गया था , तो मैं भी वैसे ही सीख लूंगा । अब मुझे अहसास हुआ कि बच्चे के दिमाग पर कोई भी बात कितना और कितनी जलदी असर करती है ।

मैं बस आप सब की राय में यह जानना चाहुंगी कि – क्या ऐसी कहानियां हमें आजकल के बच्चों को नहीं सुनानी चाहिएं । क्या मैने गलती की बच्चे को एकलव्य की कहानी सुनाकर । केवल एकलव्य की ही नहीं कितनी ऐसी कहानियां है जिससे नकारात्मक विचार पनपते हैं और आज के आधुनिक युग के बच्चे जब बडों से भी बढकर बडी बातें सोचते हैं तो क्या हमारी शिक्षा प्रणाली में उसी हिसाब से बदलाव नहीं होने चाहिएं । एक अहं प्रश्न क्या एक गुरु का अपने अनजान शिष्य से अंगूठा मांगना उचित था ? और क्या एकलव्य का यूं बिना सोचे-समझे अंगूठा काट कर दे देना क्या उचित था

19 जून 2010

पापा तुम........?

पापा तुम क्या हो .....?


कभी-कभी सोचती हूं

कितनी सहनशीलता है तुमने

मैनें किसी भगवान को नहीं देखा

देखा तो सबसे महान को देखा

तुम्हें देख मैं सोच सकती हूं

भगवान कैसा होगा .......?

निश्चय ही तुमसे उन्नीस होगा

तुम्हीं मेरी प्रेरणा ,

तुम्हीं मेरा विश्वास हो

तुम्हीं मन की शक्ति ,

तुम्हीं एकमात्र आस हो ।

तुम्हीं निराशा में आशा का संचार हो

पापा तुम सच में खुशियों का संसार हो

भूल जाती हूं मैं हर गम

तुम्हारा प्यार पाकर

हर पीडा पी जाती हूं

तुम्हारा दुलार पाकर

दूर होकर भी तुम कितने पास

क्या मैं हूं इतनी खास

बिन बताए मेरा दर्द समझ जाते हो

तुम कैसे मेरे अंदर

गहराई में घुस जाते हो ?

सोचती हूं पापा

जो हर कोई तुम सा होता

तो कभी दुनिया में

फ़िर कोई जुल्म न होता

पापा तुम इतने सच्चे क्यों हो ?

इस बेईमान दुनिया में

इतने अच्छे क्यों हो ?

तुम कभी अपने लिए

क्यों नहीं जीते हो ?

क्यों मेरे हिस्से के

गम भी तुम्हीं पीते हो ?

मुझे गर्व है

जो मेरे पापा हो तुम

हालात की ठोकरों के

दिए जख्मों पर मरहम हो तुम

तुम ब्रह्मा , विष्णु महेश हो

पापा तुम सबसे विशेष हो

तुम विशाल आकाश हो

अंधेरे जीवन में प्रकाश हो

तुम्हीं मेरा आत्म-विश्वास हो

तन्हाई में भी तुम हर पल पास हो ।

पापा यूं ही रखना हमेशा

मेरे सर पर हाथ

मुझे चाहिए हर पल

तुम्हारा प्यारा साथ

मुझे हर पल चाहिए

तुम्हारा प्यारा साथ ।

19 अप्रैल 2010

. मैं और तन्हाई - भाग ३.

. मैं और तन्हाई - भाग १
. मैं और तन्हाई - भाग 2

मुझे देख अकेला तन्हाई


चोरी से क्यों तू चली आई

नहीं तेरा मेरा साथ कभी

मेरे पास तो होंगे अपने सभी

नही चाहिए मुझे तुमसे साथी

जाओ ढूंढो अपने नाती

नहीं मुझे चाहिए साथ तेरा

मेरे पास तो है घर-बार मेरा

मैं इंसां और तू परछाई

क्यों आई यहां तू तन्हाई

6 अप्रैल 2010

मैं और तन्हाई - भाग २

मैं और तन्हाई - भाग १

काला अंधियारा सन्नाटा
इक आहट नें उसको काटा
न जाने कहां से आई थी
इक धुंधली सी परछाई थी
बोली मैं साथ निभाऊंगी
तुम्हें छोड कभी न जाऊंगी
मैं चिल्लाई और झल्लाई
पर ढीठ थी कितनी परछाई
मैं रोती रही वो हंसती रही
हंस-हंस कर मुझको डसती रही
छलनी कर गई मेरा सीना
दूभर कर गई मेरा जीना
नहीं पास तू मेरे रह सकती
किसी एक को मैं दूंगी मुक्ति
वो खिल-खिल हंस दी सुन के बात
सूनेपन में देती हूं साथ
तभी तो मैं पास तेरे आई
और नाम है मेरा तन्हाई

क्रमश:

1 अप्रैल 2010

मां - चन्द क्षणिकाएं

१.मां मैं जब भी मिलती हूं तुमसे
पहले से कमजोर ही दिखती हूं तुम्हें
यह तुम्हारी नज़र का धोखा है
या नज़र कमजोर है

२.मां तुम बातों ही बातों में
उगलवा लेना चाहती हो
मेरे सीने में दफ़न सच्चाई को
कितनी भोली और
मासूम हो तुम

३.दूर से आवाज़ सुन
जान लेती हो सबकुछ
तुम्हारा अंदाज़
कभी गलत नहीं होता
सत्य नापने वाली मशीन
हो क्या तुम ?

४. मैं रोती रही देर रात तक
सिराहने को तुम्हारी गोदि समझ
सो गई आराम से
पर आंखें तुम्हारी क्यों लाल हैं

५. कल रात मैनें खाना न खाया
किसी को भी न बताया
तुम क्यों उठ गई खाना छोडकर
भूख न होने का बहाना बनाकर

६. अपनें शब्दों से छू लेती हो
मेरे मन के घाव
इतनी दूरी से भी
कितनी आसानी से तुम
यह कला कहां से सीखी तुमने ?

७.कितने ही दर्द भाग जाते हैं
तुम्हारे स्पर्श भर से
कौन सा बाल्म लगाती हो
अपने स्नेहिल हाथों में ?

८.मेरे बालों में चलती
धीरे-धीरे तुम्हारी उंगलियां
हर गम भुला सुला देती हैं
क्या चुंबकीय आकर्षण है
उंगलियों में निद्रा का ?

९. बाज़ार में चलते हर चीज़ में
तुम्हारी सोच मुझ तक ही
सीमित हो जाती है
क्या तुम्हारी अपनी
कोई इच्छाएं नहीं हैं ?

१०.अपने कितने ही गम
छुपा लेती हो बडी सफ़ाई से
अपनी गहरी आंखों के रास्ते
दिल के किसी कोने में
इतनी सहनशीलता
कहां से आई तुममें ?

24 मार्च 2010

बिखर गया जो तार-तार अहसास कहां से लाऊं

बिखर गया जो तार-तार
अहसास कहां से लाऊं

तोड दिया खुद तुमने जो
विश्वास कहां से लाऊं
न दर्द रहा दिल में कोई
न रही कोई इसमें धडकन
पाहन से सीने में तो अब
न विचलित होता है ये मन
न आह रही इसमें कोई
तो प्यास कहां से लाऊं
तुम्हीं बताओ पहला वो
अहसास कहां से लाऊं

नैनों से नीर नहीं बहता
न भाती इनको सुन्दरता
न भाव दिखें गहरे इनको
न रही है इनमें चंचलता
न इठलाते इतराते ये
तो पास कहां से आऊं
तुम्हीं बताओ पहला वो
अहसास कहां से लाऊं

न भाव रहा न ही भंगिमा
न रही वो पहले सी गरिमा
न दर्द न अनुभव है कोमल
न आह किसी से पिघले दिल
अर्थहीन जग-जीवन तो
फ़िर आस कहां से लाऊं ( आस - उम्मीद )
तुम्हीं बताओ पहला वो
अहसास कहां से लाऊं
तोड दिया खुद तुमनें जो
विश्वास कहां से लाऊं
विश्वास कहां से लाऊं

18 मार्च 2010

माला की माया- हास्य कविता


माला की माया ने
ऐसा बवंडर मचाया
हर सांसद क्या
आम जन भी चिल्लाया
चौंधिया गईं आंखें
कैमरों की भी
देखते ही माला की चमक
पास में होते तो
शायद पकडते लपक
फ़टी की फ़टी आंखें और
मुंह में पानी भर आया
माला की माया ने
ऐसा रंग दिखाया
कि हर कोई ललचाया
दूर ही के दर्शन से
मैं बेहोश हो गई
ऐसी ही माला के
सपनों में खो गई
मैनें देखा.........
मुझे पहनाई एक माला
अंधेरे बंद कमरे में
माया का उजाला
नोटों में खनक होती है
सुना था
पर इतनी चमक को
पहले न देखा था
सबकी जुबां पर
बस मेरा ही नाम
पूछता हर जन
माला का दाम
मैनें सोचा न था
एक माला
इतना बडा
काम कर जाएगी
कुछ ही पलों में
मेरा नाम कर जाएगी
फ़िर अचानक उठे शोर से
मैं घबराई
माला छुपाई
कहां जाऊं ?समझ न पाई
इतने में एक नेता जी ने
घंटी बजाई
झट से माला तोडने का
सलाह सुनाई
एक नकली नोटों की माला
मेरे घर भिजवाई
बात मुझे अभी भी
समझ न आई
असली माला को
जमीं निगल गई
या आसमान खा गया
मेरी आंखों में
अंधेरा छा गया
मैनें पूछा नेता जी
यह क्या बदमाशी है ?
माला को छुपा देने में
कौन सी शाबाशी है ?
असली माला देखे बिन
मुझे नींद नहीं आती है
यह नकली माला
मुझे नहीं भाती है
जब छुपानी ही थी
तो पहनाई क्यों ?
जब तोडनी ही थी
तो बनवाई क्यों ?
इतने कारीगरों नें
महान कार्य जो किया है
उनको अच्छा-खासा
मेहनताना भी दिया है
फ़िर तुमनें यूं क्यों
माला को गुमाया है ?
मीठी निद्रा में सोते-सोते
मुझे क्यों जगाया है
मुझपर तो माया का नशा है
नोटों की सेज़ पर सोने का
अपना ही मजा है ।
नेता झल्लाया
फ़िर तीखी वाणी में समझाया
तुम्हें हीरों की माला पहनाएंगे
उन चमचमाते हीरों को
फ़ूलों में छुपाएंगे
किसी की बुरी नज़र
नहीं लग पाएगी
बहन जी
हमारी इज्जत बच जाएगी
फ़ूलों से खाक दिखाऊंगी
अपनी माया के जलवे
जो दिखाने में
घिस जाते हैं तलवे
अरे ! मैं इज्जत से
क्या खाक कमाऊंगी ?
माला न मिली तो
मैं जीते जी मर जाऊंगी
जलदी से दूसरी माला बनवाओ
और मेरे गले में पहनाओ
उसकी कीमत और
अपनी औकात बता दो
जलदी से चमचमाती
माला बना दो
नेता जी ने माला मंगवाई
फ़िर से मेरे गले में पहनाई
मैनें देखा हाथ से छूकर
बिखर गए मोती
माला के गिरकर
हडबडा कर आंखें खोली
और अपनी ही
किस्मत पर रो ली
कल ही तो खरीदकर लाई थी
अभी तक किसी
सहेली को भी न दिखाई थी
और कर दी मैनें ऐसी नादानी
पचास रुपए पर फ़ेर दिया पानी
माला के मोती बिखर गए
मेरे सपने टूट गए
बिखरे मोतियों को
कचरा दान में फ़ैंकवाया
फ़िर लाख प्रयास किए
माला का सपना न आया

11 मार्च 2010

मैं और तन्हाई - भाग १

इक रात थी काली अंधियारी
जीने की चाह से मैं हारी
न खुला था आगे कोई पथ
लगा, थम गया है जीवन-रथ
न पास में था मेरे कोई
मैं बिलख-बिलख कर बस रोई
इक साथ में थे आंसु और गम
नैना रहते थे हर दम नम
फ़िर एक घडी ऐसी आई
आंखें भी मेरी पथराई
मैं गम थी या गम ही मैं था
कोई भेद न था , कोई भेद न था
क्रमश:

8 मार्च 2010

हर दिन नारी दिवस बना लो

.नारी तुम प्रेम हो आस्था हो विश्वास हो ,
टूटी हुई उम्मीदों की एकमात्र आस हो
हर जन का तुम्हीं तो आधार हो
नफ़रत की दुनिया में मात्र तुम्हीं प्यार हो
उठो अपने अस्तित्त्व को संभालो
केवल एक दिन ही नहीं ,
हर दिन नारी दिवस बना लो

२. नारी तुम जननी हो
सष्टि में सर्वोत्तम
फ़िर पसरा है क्यों
तुम्हारे ही जीवन में तम
दुनिया को रोशन करती हो
क्यों स्वयं तिल-तिल मरती हो
अपने मन में भी एक
आशा की किरण बसा लो
केवल एक दिन ही नहीं ,
हर दिन नारी दिवस बना लो
. इतिहास के नाम पर स्वयं को
उपहास क्यों बनाती हो ?
क्यों किसी के अहं के आगे
स्व को भूल जाती हो
तुम लाचार नहीं हो
सजाकर दे दो खुद को
वो उपहार भी नहीं हो
क्यों खो रही हो अपनी गरिमा
केवल पन्नों में खो जाए
तुम्हारी अपार महिमा
उससे पहले ही
अपना नाम कमा लो
केवल एक दिन ही नहीं ,
हर दिन नारी दिवस बना लो

४. याद करो वो सीता स्वयंवर
नारी इच्छा से चुनती थी वर
आज क्यों बन रही हो बेचारी
ऐसी तो कभी न थी
भारत की नारी
दोहरा रही हो तुम
कौन सा इतिहास
क्यों भूल चुकी हो अपनी ही
महानता का अहसास
तुम गुमनाम नहीं हो
जो चुकाया जा सके
वो दाम नहीं हो
खुद को इतना न गिराओ
कि तमाशा ही बन जाओ
भूखी निगाहों के तीर न सहो
बल्कि उन्हीं को निशाना बना लो
केवल एक दिन ही नहीं ,
हर दिन नारी दिवस बना लो


नारी दिवस की हार्दिक बधाई.....सीमा सचदेव

1 फ़र॰ 2010

एक नागिन की दास्तां.....

घने जंगल में गहरे तरु की छाया में
दुखियारी एक नागिन नें
कुण्डली मारी
अपने ही जायों को फ़ंसाया
अनमने मन से खाया और
कोख से निकाल पेट में पाया
खाते-खाते समझाया
अरे क्यों आए दुनिया में
दुनियादारी निभाने
खुद शिकार बनने या बनाने
नहीं जानते थे तुम
हर कदम पर कांटे चुभेंगे
तुम डरोगे या
तुमसे लोग डरेंगे
न कोई तुम्हें अपनाएगा
न प्यार से गले लगाएगा
अपनी ही मां का
निवाला बनोगे
बस कोख में ही
सुरक्षित रहोगे
देख चुकी हूं मै
अपनी मां से आजाद होकर
हर पल गुजारा रोकर
मां की कुण्डली से
निकल भागी थी मैं
सोई नहीं जागी थी मैं
जन्म लेते ही
भाग निकली थी मां से आगे
आंख बचाकर छुप-छुपाकर
ठोकरें खाते , बचते-बचाते
सीख ली दुनियादारी
सबकी नफ़रत को पीती रही
जैसे तैसे जीती रही
उसी नफ़रत नें मेरे अंदर
जहर से घर बना लिया
देखते ही देखते मेरे जहर का
जादु छा गया
जिससे डरी
उसी को डराना आ गया
मेरे हाथ ज्यों कोई
खजाना आ गया
बेफ़िक्र बेप्रवाह
कहर बरपाती रही
खुद को मिली नफ़रत का
हिसाब चुकाती रही
फ़िर कहर की आंधी आ गई
मै मां बन गई
उमडने लगा मुझमें
ममता का सागर
पर सोचा तुम्हें जन्मुंगी अगर
तो मां की ही भूमिका निभाऊंगी
अपने जायों को खाऊंगी
तब न समझी थी मैं
अपनी मां की समझदारी
और निकल पडी थी
निभाने दुनियादारी
आज समझती हूं
इसलिए वही करती हूं
जो मां ने किया
अगर तुममें से कोई भी जिया
तो वही इतिहास दोहराएगा
मुझसा होकर रह जाएगा
नही , मैं नहीं होने दूंगी
कडवा सत्य तुम्हें
न सहने दूंगी
दुनिया में आकर भी
क्या पाओगे
मेरे पेट में जाओगे
तो निवाला बन जाओगे
इतने में
एक सपोलिया कूदा
मां के चंगुल से
आजाद हो गया
देखती रह गई नागिन
वह आंखों से ओझल हो गया