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6 जुल॰ 2010

क्या करें क्या न करें , ये कैसी मुश्किल………..?

bahut बार ऐसे हालात हमारे सामने पैदा हो जाते हैं कि हम समझ ही नहीं पाते कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं । बातें बहुत छोटी-छोटी , पर इतनी गंभीर कि बडे-बडों को निरुत्तर करदें । जी हां , ऐसा ही वाक्या कुछ मेरे साथ भी हुआ और सोचने पर मजबूर हूं कि आज के हालात में हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं । हुआ कुछ यूं कि हमारे साहिबजादे ( जिसनें ३० जून को ही साढे चार साल पूरे किए है ) शुभम को कहानियां सुनना और सुनाना इतना पसंद है कि जब तक कोई कहानी नहीं सुन लेते तब तक न खाना , न होम-वर्क करना और न सोना मतलब हमें हर बार उन्हें कोई न कोई कहानी सुनाकर बात मनवानी पडती है और उसके बाद हम पर जो प्रश्नों की बौछार होती है , सच में उससे तो मुझे डर लगने लगा है । अब तो मेरे मुंह से गलती से भी कोई शब्द भी निकल गया तो उसके लिए मुझे बताना पडेगा कि यह शब्द मैनें क्यों बोला । क्यों हंसे , चुप क्यों हो , फ़ोन पर किससे बात की , पापा से क्या बोला , पापा नें क्या बोला , क्यों बोला , कहां जाना है , क्यों जाना है…………? ऐसे हजारों प्रश्न जिनका सामना मुझे आजकल करना पड रहा है 

                                                    मैं हर प्रश्न का जवाब (कोशिश करती हूं दे सकूं )ज्यादातर देती भी हूं । एक उदाहरण देखिए ….
१. बिल्ली चूहे क्यों खाती है , कुत्ता क्यों नहीं खाता ?
२. सूरज सुबह ही क्यों आता है रात को क्यों नहीं ?
३. सूरज में रोशनी क्यों है ?
४. गाय दूध क्यों देती है ?
 ५. हम खाना मुंह से क्यों खाते हैं ?
६. अगर चंदा मामा के साथ तारे न हों तो क्या होगा ?
७. पक्षी उडते क्यों हैं ? हम क्यों नहीं उड सकते ?
८. बिल्ली हमसे बात क्यों नहीं करती ?
 जी हां , ऐसे सैंकडों प्रश्न । ऐसा नहीं कि इन प्रश्नों के उत्तर नहीं है । हैं मगर हम अगर इतने छोटे से दिमाग में इतना ग्यान उडेलने लगें तो क्या उनका नन्हा सा मन पचा पाएगा । मैं जितना भी उसे संक्षिप्त में समझाने का प्रयास करती हूं उसकी जिग्यासा और बढती जाती है । खैर मैं बात कर रही थी कहानियों की कि जब तक हमारे नन्हे शैतान को कहानी सुना न दो और उसकी कहानी सुन न लो तब तक कोई काम आगे बढता ही नही । कहानी भी कोई ऐसी वैसी नहीं उसी टापिक पर कहानी सुनाओ जिसको सुनाने की फ़रमाईश की जाएगी । मतलब अच्छी-खासी परीक्षा होती है हमारी बुद्धि की ।आन-द-स्पोट हमें बताया जाता है कि इस विषय पर कहानी सुनाओ और हमें सोचने का समय भी नहीं दिया जाता । अब पाठकगण भले ही इस बात को समझें या न समझें लेकिन हमारे मित्र लेखकगण तो भली-भांति समझते हैं कि एक कविता/कहानी लिखने में कितने मक्खी-मच्छरों को मारना पडता है कि कहीं मन के किसी कोने में कोई भाव जग जाए और कलम चल ही पडे ।
                                                   बडों के लिए कुछ भी चलेगा क्योंकि आजकल उतना समय किसके पास है कि किसी और की रचना को मन लगाके पढो और फ़िर उस पर समीक्षा करो । हां टिप्पणी करनी पडती है , वर्ना आपको कोई पूछेगा ही नहीं । उसके लिए तो आसान सा तरीका है , बिना पढे तारीफ़ करदो । इसके तीन फ़ायदे हैं – एक तो आपको पढने में अपना समय बर्बाद नहीं करना पडता और दूसरा अगर तारीफ़ की जाए तो कोई बुरा भी नहीं मानता उर तीसरा यह कि आपकी रचना पर कम से कम एक टिप्पणी तो अवश्य मिल जाएगी । एक और आसान सा तरीका भी है वो यह कि सबकी टिप्पणियां पढलो और उसी के मुताबिक अपनी टिप्पणी भी चेप दो , तो काम आसानी से चल जाता है । किसने क्या लिखा , कितनी मेहनत से लिखा उससे क्या लेना-देना । अब हमारे बारे में तो कोई लिखने से रहा जो इसकी प्रवाह की जाए । लेकिन जब बात बच्चों के लिए लेखन की आती है तो भैया बहुत होशियार रहना पडता है । ये आजकल के बच्चे गलती पकडने में उस्ताद हैं ।पहले खुद बच्चा बनो , उनके मानसिक स्तर पर सोचो और फ़िर लिखो – बहुत टेढी खीर है बच्चों के लिए लिखना और आन-द-स्पोट जब मुझे कहानी सुनाने के लिए कहा जाता है तो मेरी हालत क्या होती होगी , समझने वालों को अवश्य मुझसे हमदर्दी होगी ।
                                     अब देखिए न कल ही शैतान बेटे को पढा रही थी – अ से अनार , आ से आम , इ से इमली , ई से ईख , उ से उल्लू…….। बाकी सब तो चला लेकिन उल्लू जी ने हमें ऐसा फ़ंसाया कि क्या बताएं बस उल्लू का नाम लिया और झट से फ़रमाईश आ गई – उल्लू की कहानी सुनाओ न । अब उल्लू को जानते तो हैं , बहुत बार खुद भी तो बनते हैं , अब कैसे बताती कि हम कब-कब कैसे कैसे उल्लू बन जाते हैं , कोई जान-बूझकर थोडे ही बनते हैं । कैसे बताती कि उल्लू बनना कितना आसान है और बनाना कितना मुश्किल । मुझमें तो इतनी समझ कहां है कि मैं किसी को उल्लू बना सकूं । तो उल्लू जी के बारे में क्या बताऊं सोच ही रही थी कि फ़िर से -मम्मी आप सोच क्या रहे हो , उल्लू की कहानी सुनाओ न । हमारे दिमाग की घण्टी बजी और हमें पहली बार अहसास हुआ कि हममें भी प्रेजेंस आफ़ माइंड नाम का कोई कीटाणु है , हमें डा. डंडा लखनवी जी की कविता याद आ गई
उल्लू जी स्कूल गए
बसता घर में भूल गए
मिस बुलबुल नें टेस्ट लिया
टेस्ट उन्होंनें नहीं दिया
सारे पक्षी हीरो थे
उल्लू जी ही ज़ीरो थे
बस हमनें उसी को कहानी बनाकर लम्बा खींचकर सुना दिया । आदत वश हम बींच-बीच में पक्षियों के जगह बच्चे शब्द का प्रयोग कर बैठे तो शैतान दिमाग नें वहीं पर हमें कितनी बार रोका बच्चे नहीं पक्षी और हम उल्लू की कहानी सुनाते-सुनाते कितनी बार रुके । अब यहां एक बार और थोडा रुकना पडेगा हमें – कहीं फ़िर से उल्लू न बन जाएं , पहले आप सब से पूछ ही लेते हैं कि मैनें डा. डंडा लखनवी जी की कविता को कहानी बनाकर सुनाया तो कोई चोरी तो नहीं की न , कल को पता चले मुझ पर की चोरी का मुकदमा ठोक दिया है और मैं अच्छी खासी उल्लू बन गई हूं । अगर यह चोरी है तो प्लीज़ मुझे जरूर बताएं ।
                                                     अभी तीन-चार दिन पहले न जाने हमें क्या सूझी कि बचपन से रटी-रटाई गुरु-शिष्य की कहानी एकलव्य की कहानी सुना बैठे । गलती तो हमारी ही है , शायद इतने छोटे बच्चे को हमें यह कहानी नहीं सुनानी चाहिए थी लेकिन हमारी बुद्धि में बात जरा देरी से ही समझ आती है । हमनें कहानी सुनाई , अब दोबारा आपको नहीं सुनाऊंगी , जानती हूं आप सब भी यह कहानी बचपन से सुनते आ रहे हैं तो अब तक तो सुन-सुनकर पक चुके होंगे । सो अपने प्रिय पाठकों ( जो थोडे-बहुत हैं , को न पकाते हुए)को बस वही बताऊंगी जो मेरे साथ हुआ । हां तो शुभम नें कहानी बडे ध्यान से सुनी और अंत में हमने हर बार की तरह फ़िर से जानना चाहा -कि कहानी कैसी लगी तो हमारी इच्छा के विपरीत जवाब मिला – बस छोटी से अच्छी लगी और बडी वाली गंदी । मेरी सारी मेहनत पर पानी फ़िर गया था । मुझे जानना था कि जो कहानी गुरु-शिष्य का नाता समझाने में दुनिया की सबसे बडी उदाहरण है और हमें दादा-दादी , मम्मी-पापा , अध्यापकगण सुना-सुनाकर समझाने का प्रयास करते थे और जिसे हम सुनकर ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेते थे , क्या मजाल कि आगे से कभी कोई प्रश्न करने की हिम्मत भी की हो ,उस कहानी को नन्हे से बच्चे नें सिरे से नकार दिया , बात मुझे कुछ हज़म नहीं हुई और कहानी पसंद न आने का कारण जानना अब मेरे लिए सबसे जरूरी था – जो जवाब मिला सुनकर मैं सोचने पर मजबूर थी |
 उसका जो जवाब था – गुरु नें उसे पढाया क्यों नहीं ?तो गुरु नें एकलव्य का अंगूठा क्यों मांगा , उसने गंदी बात क्यों की , एकलव्य को पेन हुआ होगा न । एकलव्य को भी अपना अंगूठा नहीं काटना चाहिए था न ।
संयोग से उसी दिन उसकी ड्राइंग क्लास भी थी और जब मैं उसे ले जा रही थी तो रास्ते में शुभम नें मुझसे बोला – आज मैं बस देखुंगा , कुछ करुंगा नहीं । क्यों तुम क्यों नहीं करोगे ? एकलव्य भी तो देखकर सीख गया था , तो मैं भी वैसे ही सीख लूंगा । अब मुझे अहसास हुआ कि बच्चे के दिमाग पर कोई भी बात कितना और कितनी जलदी असर करती है ।

मैं बस आप सब की राय में यह जानना चाहुंगी कि – क्या ऐसी कहानियां हमें आजकल के बच्चों को नहीं सुनानी चाहिएं । क्या मैने गलती की बच्चे को एकलव्य की कहानी सुनाकर । केवल एकलव्य की ही नहीं कितनी ऐसी कहानियां है जिससे नकारात्मक विचार पनपते हैं और आज के आधुनिक युग के बच्चे जब बडों से भी बढकर बडी बातें सोचते हैं तो क्या हमारी शिक्षा प्रणाली में उसी हिसाब से बदलाव नहीं होने चाहिएं । एक अहं प्रश्न क्या एक गुरु का अपने अनजान शिष्य से अंगूठा मांगना उचित था ? और क्या एकलव्य का यूं बिना सोचे-समझे अंगूठा काट कर दे देना क्या उचित था