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20 जुल॰ 2022

विकास...

 आज सहसा ही दिल कुछ घबरा गया , जब अचानक से , विकास सम्मुख आ गया। डरा, सहमा,घबराया, मुझे देखते ही गिड़गिड़ाया। मैं अनजान थी ,हैरान थी, न उससे कोई पहचान थी। पहली ही तो मुलाक़ात थी , हाँ , वर्षों पुरानी, याद एक बात थी। सुना तो था , विकास आने वाला है , जन-जन में बदलाव, लाने वाला है। उसके आने से , हर पति लखपति बन जाएगा। जब बैंक खातों में पंद्रह लाख आएगा। पढ़े-लिखों को , रोजगार मिलेगा , बेसहारों के घर-बार मिलेगा। भारत अमीरों की श्रेणी में आएगा , गर्व से सीना चौड़ा हो जाएगा। हर मन में उल्लास था , मन की बात पर , अंध-विश्वास था। लगा तो था , ये एक सुन्दर सपना है। भ्रष्टाचारी दुनिया में , भला कौन अपना है। फिर गीता का, सार याद आ गया , प्रभु श्री कृष्ण का, विचार याद आ गया। जब धर्म की हानि होगी तो , भगवान आएगा। भूली भटकी दुनिया को , सच्ची राह दिखाएगा। बस यही सोच हम भी , चुपचाप देखते रह गए। जिस तरफ आंधी चली , उस दिशा में हम भी बह गए। शुरू हुआ इंतज़ार कि अब , विकास आने वाला है। भूली भटकी भारत भू को , राह दिखाने वाला है। ढोल-नगाड़े सब बजे , और बजी शहनाई भी। विकास के आने से पहले , आँखें गयी बिछाई भी। पर विकास न आया , और न आई उसकी परछाई भी। छलिए ने छल डाला , और न की , उसकी भरपाई भी। थक-हार के भूल चुके सब, रही न अब कोई आशा। समझ चुके थे, हम भी अब तक , उस विकास की परिभाषा। न आया था , न आया है , आने की भी उम्मीद नहीं। ये कोरी एक कल्पना थी , विकास नाम की चीज नहीं। --------------------------- --------------------------- पर आज अचानक, अपने सम्मुख। यूं उसको रोता पाया। एक बार तो लगा पुराना , सपना है फिर से आया। ये वो विकास तो नहीं, जिसे हम पलकों पे बिठाए थे। जिसके आने की खुशी में , मन ही मन में लड्डू खाए थे। वो सुन्दर था ,सजीला था। हर रंग में रंगा रंगीला था। और ये बूढ़ा,लाचार,बेचारा, फिरता है मारा-मारा। आखिर हमने हिम्मत करके, पूछा ये पहले बतलाओ। तुम आए कब ? कब बड़े हुए ? थोड़ा तो मुझको समझाओ। नामकरण तो जन्म से पहले , ही तेरा कर डाला था। पर न दिया दिखाई तू, तुम्हें किसकी कोख ने पाला था। तुमको ही तो भूखे ने, समझा मुंह का निवाला था। अंधियारे में जीने वालो, को तू लगा उजाला था। पर क्या था मालूम कि तू , दीवाली नहीं दिवाला था। पीठ के पीछे वार करे जो, तू ऐसा इक भाला था । मृग तृष्णा सा आभासी , तू कोई भ्रम का जाला था। तोड़ी तुमने सबकी आशा , न समझी कभी जन की भाषा। मन की बातों में उलझाया, क्यों बोल न अब तक तू आया। और ये क्या रूप बनाया है। या फिर से कोई माया है। तुम आडम्बर के माहिर हो , अब तुम सबमे जग जाहिर हो। फिर से हमको बहकाओ ना , बातों में फिर उलझाओ ना। सर झुका के बोला ,जोड़ हाथ , मैं तो अब भी जन-जन के साथ। न बूढ़ा , ना बीमार हूँ, बस हालत से लाचार हूँ। मैं भूखे का ही निवाला हूँ , पर बना दिया घोटाला हूँ। मैं असीम , पर सीमा में , बांधा है कुछ बाशिंदों ने। अपने लालच की खातिर , मुझे मिटा दिया दारिन्दों ने। मुझमें भी जीने की चाहत , मुझको भी चाहिए कुछ राहत। बस एक उम्मीद से आया हूँ। अब किसी का न भरमाया हूँ। ना झूठे सपने दिखाऊंगा , पर सच्ची राह बताऊंगा। युवा शक्ति आगे आए , और लालच को न अपनाए। उम्मीद रखे अपने ऊपर , न हो किसी पर वो निर्भर। अपनी शक्ति को पहचाने , मन में पक्के निश्चय ठाने। न समझे खुद को कोई दास , तो दूर नहीं हूँ मैं विकास।