माँ शारदे प्रश्नावली - २
कल रात मेरे पास आ गयी माँ शारदे ,
कहने लगी कुछ प्रश्नों के मुझको जवाब दे ।
मैंने कहा माँ तुम तो स्वयं ज्ञान की दाता ,
है कौन सा सवाल , जो तुमको भी न आता ।
मैं अदना सी अनजान सी , कुछ भी तो न जानूँ ,
फिर भी हैं क्या सवाल , एक बार तो सुनूँ ।
कहने लगी ये शान्ति , चहुँ ओर क्यों छाई ?
जिस तरफ भी देखो , सारी जनता घबराई ।
क्यों डर रहा है आदमी , अपनों के मिलने से ?
क्यों नहीं उल्लास , नव फूलों के खिलने से ?
देखती हूँ , पर्वों में उमंग नहीं है ,
हर कोई अकेला , कोई संग नहीं है ।
सड़कें हैं वीरान , क्यों दिखती न भीड़ है ?
यूँ लगे बतिया रहा , चिड़िया का नीड है ।
फूल तो खिले हैं , हरियाली भी खूब है ,
लहर लहर लहरा रही , लम्बी सी दूब है ।
कुदरत की सुंदरता का , भी अनोखा रंग है ।
फिर बदला -बदला क्यों , अभी जीने का ढंग है ?
क्यों मुँह छुपाए घूमता , हर जन मुझे दिखा ?
क्या दूर से बतिया रही , हिमगिरि की वो शिखा ?
पक्षी भी विचरण कर रहे , आज़ाद गगन में ,
है नई खुशबू औ , नया रंग चमन में ।
न धुल न धुआँ है , आज मस्त पवन है ,
पर पड़ा वीरान क्यों , देवों का भवन है ?
मंदिर हुए क्यों बंद , न मस्जिद में अज़ान है ?
न देव न देहरी , चिढ़ाता कबरिस्तान है ।
न काम पर जाने की , लगी कोई होड़ है ,
जल्दी से निकल जाने की , न कोई दौड़ है ।
हैरान हूँ मैं , आदमी आराम कर रहा ,
घर में दुबका बैठा , कैसा काम कर रहा ?
बंद पड़ा विद्यालय , न बच्चों का शोर है ,
पसरा क्यों सन्नाटा , बोलो चारों ओर है ?
कहते हुए ये माँ की वाणी , भी भर्रा गयी ,
नम हुई आँखें औ अश्रुधार आ गयी ,
छोड़ वीणा तार , माँ ने बाहें खोल दी ,
यूँ लगा हर जन के , मन की बातें बोल दी ।
मैं क्या कहुँ , कैसे कहुँ , कुछ समझ पाई ना ,
दिल भरा पर बात कोई , जुबां पे आई ना ।
बहने लगे थे आँसु , कंठ अवरुद्ध हो गया ,
मुँह से कुछ न निकला , पर मन शुद्ध हो गया ।
आँखों ही आँखों में , समझ ली , मेरे मन की बात ,
यूँ बिलखता देख , माँ ने पकड़ा मेरा हाथ ।
ऐसा हुआ अहसास , मेरी आँख खुल गयी ,
माँ के स्पर्श से , मन की सारी , पीड़ा धूल गयी ।
कर जोरि करूँ ये प्रार्थना , माँ तू कर उपकार दे ,
दे दे हमें तू शक्ति , तू सब कुछ संवार दे ।
महामारी से दुनिया को , तुम मुक्त कराओ माँ ,
मानवता के हेतु , तुम जल्दी से आओ माँ ।
आ के अपनी किरपा का , हमको उपहार दे ,
कल रात मेरे पास , आई थी माँ शारदे ।
कल रात मेरे पास आ गयी माँ शारदे ,
कहने लगी कुछ प्रश्नों के मुझको जवाब दे ।
मैंने कहा माँ तुम तो स्वयं ज्ञान की दाता ,
है कौन सा सवाल , जो तुमको भी न आता ।
मैं अदना सी अनजान सी , कुछ भी तो न जानूँ ,
फिर भी हैं क्या सवाल , एक बार तो सुनूँ ।
कहने लगी ये शान्ति , चहुँ ओर क्यों छाई ?
जिस तरफ भी देखो , सारी जनता घबराई ।
क्यों डर रहा है आदमी , अपनों के मिलने से ?
क्यों नहीं उल्लास , नव फूलों के खिलने से ?
देखती हूँ , पर्वों में उमंग नहीं है ,
हर कोई अकेला , कोई संग नहीं है ।
सड़कें हैं वीरान , क्यों दिखती न भीड़ है ?
यूँ लगे बतिया रहा , चिड़िया का नीड है ।
फूल तो खिले हैं , हरियाली भी खूब है ,
लहर लहर लहरा रही , लम्बी सी दूब है ।
कुदरत की सुंदरता का , भी अनोखा रंग है ।
फिर बदला -बदला क्यों , अभी जीने का ढंग है ?
क्यों मुँह छुपाए घूमता , हर जन मुझे दिखा ?
क्या दूर से बतिया रही , हिमगिरि की वो शिखा ?
पक्षी भी विचरण कर रहे , आज़ाद गगन में ,
है नई खुशबू औ , नया रंग चमन में ।
न धुल न धुआँ है , आज मस्त पवन है ,
पर पड़ा वीरान क्यों , देवों का भवन है ?
मंदिर हुए क्यों बंद , न मस्जिद में अज़ान है ?
न देव न देहरी , चिढ़ाता कबरिस्तान है ।
न काम पर जाने की , लगी कोई होड़ है ,
जल्दी से निकल जाने की , न कोई दौड़ है ।
हैरान हूँ मैं , आदमी आराम कर रहा ,
घर में दुबका बैठा , कैसा काम कर रहा ?
बंद पड़ा विद्यालय , न बच्चों का शोर है ,
पसरा क्यों सन्नाटा , बोलो चारों ओर है ?
कहते हुए ये माँ की वाणी , भी भर्रा गयी ,
नम हुई आँखें औ अश्रुधार आ गयी ,
छोड़ वीणा तार , माँ ने बाहें खोल दी ,
यूँ लगा हर जन के , मन की बातें बोल दी ।
मैं क्या कहुँ , कैसे कहुँ , कुछ समझ पाई ना ,
दिल भरा पर बात कोई , जुबां पे आई ना ।
बहने लगे थे आँसु , कंठ अवरुद्ध हो गया ,
मुँह से कुछ न निकला , पर मन शुद्ध हो गया ।
आँखों ही आँखों में , समझ ली , मेरे मन की बात ,
यूँ बिलखता देख , माँ ने पकड़ा मेरा हाथ ।
ऐसा हुआ अहसास , मेरी आँख खुल गयी ,
माँ के स्पर्श से , मन की सारी , पीड़ा धूल गयी ।
कर जोरि करूँ ये प्रार्थना , माँ तू कर उपकार दे ,
दे दे हमें तू शक्ति , तू सब कुछ संवार दे ।
महामारी से दुनिया को , तुम मुक्त कराओ माँ ,
मानवता के हेतु , तुम जल्दी से आओ माँ ।
आ के अपनी किरपा का , हमको उपहार दे ,
कल रात मेरे पास , आई थी माँ शारदे ।
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