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22 अग॰ 2008

आज़ाद भारत की समस्याएँ



आज़ाद भारत की समस्याएँ

भारत की आज़ादी को वीरों ,

ने दिया है लाल रंग

वह लाल रंग क्यों बन रहा है ,

मानवता का काल रंग


आज़ादी हमने ली थी,

समस्याएँ मिटाने के लिए

सब ख़ुश रहें जी भर जियें,

जीवन है जीने के लिए


पर आज सुरसा की तरह ,

मुँह खोले समस्याएँ खड़ी

और हर तरफ़ चट्टान बन कर,

मार्ग में हैं ये आड़ी


अब कहाँ हनु शक्ति,

जो इस सुरसा का मुँह बंद करे

और वीरों की शहीदी ,

में नये वह रंग भरे


भूखमरी ,बीमारी, बेकारी ,

यहाँ घर कर रही

ये वही भारत भूमि है,

जो चिड़िया सोने की रही


विद्या की देवी भारती,

जो ग्यांन का भंडार है

अब उसी भारत धरा पर,

अनपढ़ता का प्रसार है


गयान औ विग्यान जग में,

भारत ने ही है दिया

वेदो की वाणी अमर वाणी,

को लूटा हमने दिया


वचन की खातिर जहाँ पर,

राज्य छोड़े जाते थे

प्राण बेशक तयाग दें,

पर प्रण न तोड़े जाते थे


वहीं झूठ ,लालच ,स्वार्थ का है,

राज्य फैला जा रहा

और लालची बन आदमी ,

बस वहशी बनता जा रहा


थोड़े से पैसे के लिए,

बहू को जलाया जाता है

माँ के द्वारा आज सुत का,

मोल लगाया जाता है


जहाँ बेटियों को देवियो के,

सद्रश पूजा जाता था

पुत्री धन पा कर मनुज ,

बस धन्य -धन्य हो जाता था


वहीं पुत्री को अब जन्म से,

पहले ही मारा जाता है

माँ -बाप से बेटी का वध,

कैसे सहारा जाता है ?


राजनीति भी जहाँ की,

विश्व में आदर्श थी

राम राज्य में जहा

जनता सदा ही हर्ष थी


ऐसा राम राज्य जिसमे,

सबसे उचित व्यवहार था

न कोई छोटा न बड़ा ,

न कोई आत्याचार था


न जाति -पाति न किसी,

कुप्रथा का बोलबाला था,

न चोरी -लाचारी , जहा पर,

रात भी उजाला था


आज उसी भारत में ,

भ्रषटा चार का बोलबाला है

रात्रि तो क्या अब यहाँ पर,

दिन भी काला काला है


हो गई वह राजनीति ,

भी भ्रष्ट इस देश में

राज्य था जिसने किया ,

बस सत्य के ही वेश में


मज़हब ,धर्म के नाम पर,

अब सिर भी फोड़े जाते हैं

मस्जिद कहीं टूटी ,कहीं,

मंदिर ही तोड़े जाते हैं


अब धर्म के नाम पर,

आतंक फैला देश में

स्वार्थी कुछ तत्व ऐसे,

घूमते हर वेश में


आदमी ही आदमी का,

ख़ून पीता जा रहा

प्यार का बंधन यहाँ पर,

तनिक भी तो न रहा


कुदरत की संपदा का भारत,

वह अपार भंडार था

कण-कण में सुंदरता का ,

चाहूं ओर ही प्रसार था


बख़्शा नहीं है उसको भी,

हम नष्ट उसको कर रहे

स्वार्थ वश हो आज हम,

नियम प्रकृति के तोड़ते


कुदरत भी अपनी लीला अब,

दिखला रही विनाश की

ऐसा लगे ज्यों धरती पर,

चद्दर बिछी हो लाश की


कहीं बाढ़ तो कहीं पानी को भी,

तरसते फिरते हैं लोग

भूकंप,सूनामी कहीं वर्षा हैं,

मानवता के रोग


ये समस्याएँ तो इतनी,

कि ख़त्म होती नहीं

पर दुख तो है इस बात का,

इक आँख भी रोती नहीं


हम ढूंढते उस शक्ति को,

जो भारत का उधार करे

ओर भारतीय ख़ुशहाल हों,

भारत के बन कर ही रहें

5 टिप्‍पणियां:

Anwar Qureshi ने कहा…

बहुत खूब ..अच्छा लिखा है

Amit K Sagar ने कहा…

बहुत सही. जी.

شہروز ने कहा…

अंतरजाल की दुनिया में स्वागत है आपका.
ब्लॉग की पोस्ट पढ़ डाला.अच्छा प्रयास है.
कभी समय मिले तो इस तरफ भी रुख़ करें.

http://shahroz-ka-rachna-sansaar.blogspot.com/
http://hamzabaan.blogspot.com/
http://saajha-sarokaar.blogspot.com/

बेनामी ने कहा…

bharat ki samasyayo ko bakhoobi uthaya hai aapne, agar inke nidan ki taraf bhi prakash dale to achchha lagega.

सहज साहित्य ने कहा…

सीमा जी , आपकी ई पुस्तक 'मेरी आवाज़ सुनो' रचनाकार से ्डाउनलोड की । आपका लेखन बहुत उत्कृष्ट है । आपका ई मेल मेरे पास नहीं है । आपत्ति न हो तो भेज दीजिएगा ऽअपके इस ब्लॉग की सभी रचनाएँ अच्छी हैं ।रक्षा बन्धन की पूर्व सन्ध्या पर मेरा ढेर सारा आशीर्वाद !रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' rdkamboj@gmail.com