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20 नव॰ 2008

आँखें (चन्द क्षणिकाएँ )

आँखें (चन्द क्षणिकाएँ )

यह नहाई हुई गीली पलकें
कराती है अहसास कि
इनके पीछे है
विशाल सिन्धु
खारा जल
जो नहीं कर सकता तृप्त
नहीं बुझती इससे प्यास
यह तो बस बहता है
धार बन कर बेप्रवाह
२.
आज तृप्त है चक्षु
पिघला कर
उस चट्टान सरीखी ग्रन्थि को
जो न जाने कब से
पड़ी थी बोझ बन कर मन पर
३.
आज जुबान बन्द है
बस बोलते है नयन
सारे के सारे शब्द बह गए
अश्रु बन कर
कर गए प्रदान अपार शान्ति
४.
आज से पहले आँखों में
इतनी चमक न थी
इससे पहले यह ऐसे नहाई न थी
५.
आज पहली बार
अपना स्वाद बदला है
नमकीन अश्रुजल पीने की आदत थी
इनको बहा कर अमृत रस चखा है
६.
नेत्रों में चमकते
सीप में मोती सरीखे आँसू
ओस की बूँद की भांति
गिरते सूने आँचल में
उड जाते खुले गगन में
कर जाते कितना ही बोझ हल्का

3 टिप्‍पणियां:

makrand ने कहा…

उड जाते खुले गगन में
कर जाते कितना ही बोझ हल्का

good composition
regards

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बढिया क्षणिकाएं है।

Vinaykant Joshi ने कहा…

सभी क्षणिकाएं बहुत अच्छी है |
ये विशेष अच्छी लगी |
.
आज से पहले आँखों में
इतनी चमक न थी
इससे पहले यह ऐसे नहाई न थी
.
vinay