28 अग॰ 2022
नाच नचावे मुरली
8 अग॰ 2022
उस छत पर ध्वज...
उस छत पर ध्वज...
20 जुल॰ 2022
विकास...
आज सहसा ही दिल कुछ घबरा गया , जब अचानक से , विकास सम्मुख आ गया। डरा, सहमा,घबराया, मुझे देखते ही गिड़गिड़ाया। मैं अनजान थी ,हैरान थी, न उससे कोई पहचान थी। पहली ही तो मुलाक़ात थी , हाँ , वर्षों पुरानी, याद एक बात थी। सुना तो था , विकास आने वाला है , जन-जन में बदलाव, लाने वाला है। उसके आने से , हर पति लखपति बन जाएगा। जब बैंक खातों में पंद्रह लाख आएगा। पढ़े-लिखों को , रोजगार मिलेगा , बेसहारों के घर-बार मिलेगा। भारत अमीरों की श्रेणी में आएगा , गर्व से सीना चौड़ा हो जाएगा। हर मन में उल्लास था , मन की बात पर , अंध-विश्वास था। लगा तो था , ये एक सुन्दर सपना है। भ्रष्टाचारी दुनिया में , भला कौन अपना है। फिर गीता का, सार याद आ गया , प्रभु श्री कृष्ण का, विचार याद आ गया। जब धर्म की हानि होगी तो , भगवान आएगा। भूली भटकी दुनिया को , सच्ची राह दिखाएगा। बस यही सोच हम भी , चुपचाप देखते रह गए। जिस तरफ आंधी चली , उस दिशा में हम भी बह गए। शुरू हुआ इंतज़ार कि अब , विकास आने वाला है। भूली भटकी भारत भू को , राह दिखाने वाला है। ढोल-नगाड़े सब बजे , और बजी शहनाई भी। विकास के आने से पहले , आँखें गयी बिछाई भी। पर विकास न आया , और न आई उसकी परछाई भी। छलिए ने छल डाला , और न की , उसकी भरपाई भी। थक-हार के भूल चुके सब, रही न अब कोई आशा। समझ चुके थे, हम भी अब तक , उस विकास की परिभाषा। न आया था , न आया है , आने की भी उम्मीद नहीं। ये कोरी एक कल्पना थी , विकास नाम की चीज नहीं। --------------------------- --------------------------- पर आज अचानक, अपने सम्मुख। यूं उसको रोता पाया। एक बार तो लगा पुराना , सपना है फिर से आया। ये वो विकास तो नहीं, जिसे हम पलकों पे बिठाए थे। जिसके आने की खुशी में , मन ही मन में लड्डू खाए थे। वो सुन्दर था ,सजीला था। हर रंग में रंगा रंगीला था। और ये बूढ़ा,लाचार,बेचारा, फिरता है मारा-मारा। आखिर हमने हिम्मत करके, पूछा ये पहले बतलाओ। तुम आए कब ? कब बड़े हुए ? थोड़ा तो मुझको समझाओ। नामकरण तो जन्म से पहले , ही तेरा कर डाला था। पर न दिया दिखाई तू, तुम्हें किसकी कोख ने पाला था। तुमको ही तो भूखे ने, समझा मुंह का निवाला था। अंधियारे में जीने वालो, को तू लगा उजाला था। पर क्या था मालूम कि तू , दीवाली नहीं दिवाला था। पीठ के पीछे वार करे जो, तू ऐसा इक भाला था । मृग तृष्णा सा आभासी , तू कोई भ्रम का जाला था। तोड़ी तुमने सबकी आशा , न समझी कभी जन की भाषा। मन की बातों में उलझाया, क्यों बोल न अब तक तू आया। और ये क्या रूप बनाया है। या फिर से कोई माया है। तुम आडम्बर के माहिर हो , अब तुम सबमे जग जाहिर हो। फिर से हमको बहकाओ ना , बातों में फिर उलझाओ ना। सर झुका के बोला ,जोड़ हाथ , मैं तो अब भी जन-जन के साथ। न बूढ़ा , ना बीमार हूँ, बस हालत से लाचार हूँ। मैं भूखे का ही निवाला हूँ , पर बना दिया घोटाला हूँ। मैं असीम , पर सीमा में , बांधा है कुछ बाशिंदों ने। अपने लालच की खातिर , मुझे मिटा दिया दारिन्दों ने। मुझमें भी जीने की चाहत , मुझको भी चाहिए कुछ राहत। बस एक उम्मीद से आया हूँ। अब किसी का न भरमाया हूँ। ना झूठे सपने दिखाऊंगा , पर सच्ची राह बताऊंगा। युवा शक्ति आगे आए , और लालच को न अपनाए। उम्मीद रखे अपने ऊपर , न हो किसी पर वो निर्भर। अपनी शक्ति को पहचाने , मन में पक्के निश्चय ठाने। न समझे खुद को कोई दास , तो दूर नहीं हूँ मैं विकास।
30 मई 2022
पहचान और अनुभव
मैं पहचान हूँ,
पहचान
हूँ तुम्हारी,
तुम्हारे
संस्कारों की,
तुम्हारी
सभ्यता की |
तुम्हारे
पहनावे की,
तुम्हारी
भाषा की |
तुम्हारे
विश्वास की,
तुम्हारी
आस्था की |
तुम्हारे
घर की,
तुम्हारी
बाहर की |
तुम्हारे
आराध्य की,
तुम्हारी
आराधना की |
तुम्हारे
अस्तित्त्व की,
तुम्हारी
कल्पना की |
तुम्हारे
विचार की,
तुम्हारी
भावना की |
तुम्हारे
सृजन की,
तुम्हारी
वाणी की |
तुम्हारे
भविष्य की,
तुम्हारी
आज की |
तुम्हारे
समाज की |
तुम्हारा
बीता हुआ कल भी
हूँ मैं,
और आने वाला पल
भी हूँ मैं |
मैं
ही तुम्हारा अस्तित्त्व हूँ ,
और मैं ही व्यक्तित्त्व
भी हूँ |
मैं
तुम्हारा व्यवहार भी हूँ,
और तुममे समाया सभ्याचार भी हूँ |
तुम्हारा
वजूद भी मैं,
और तिरस्कार भी मैं|
मैं
तुम्हारे आत्म-विश्वास में,
मृगतृष्णा
की प्यास में |
मैं
तुम्हारे भीतर के प्रकाश
में भी,
और ज़िंदा ही बन चुकी
लाश में भी |
तुम्हारे
भीतर कीअसीम गहराई हूँ मैं,
रोम-रोम मे समाई
हूँ मैं |
मैं
राम हूँ और
रावण
भी मैं ही हूँ
|
तपती
दोपहरी हूँ और
सावन
भी मैं ही हूँ
|
मैं
कृष्ण की बाँसुरी हूँ,
राम
का धनुष-बाण हूँ
|
मैं
गृहस्थी हूँ और ,
मैं
ही निर्वाण हूँ |
मैं
कोमल सा भाव हूँ
,
कटु
वचनों का प्रहार भी
हूँ |
मैं
मन की शक्ति हूँ,
तो तुम्हारी भक्ति भी हूँ|
मैं
सीता की सहनशीलता हूँ,
सूर्पणखा
की मलिनता भी हूँ |
मैं
यशोदा का दुलार हूँ,
तो कैकेयी का संस्कार भी
हूँ |
मैं
भरत सा भाई हूँ,
महाभारत
की लड़ाई भी हूँ |
मैं
न केवल कन्स हूँ
,
मनु
का वंश भी हूँ
|
मैं
मीरा की वाणी हूँ
,
मैं
झाँसी की रानी भी
हूँ |
मैं
आशा की किरण हूँ
|
तो सोने का हिरण
भी हूँ|
मैं
सुनहरी प्रभात हूँ,
तो किसी का आघात
भी हूँ |
मैं
ज़िंदा हूँ ,तो पूराआसमान
हूँ |
नहीं
तो बस एक निशान हूँ|
मैं
कुदरत का दिया वरदान
हूँ |
मुझे
पहचानो,
मैं,
तुम्हारी ही पहचान हूँ |
अनुभव
मैं
तुम्हें अनुभव से मिलवाऊंगी ,
अभ्यास
से परिचय करवाऊंगी |
तुम्हें
भट्ठी में तपाऊँगी और
निखारकर
खरा सोना बनाऊंगी |
तुम्हें
मुश्किलें भी दूँगी और
रास्ता
भी बताऊँगी |
तुम्हें
निराशा भी होगी, पर
पर जीवन पाठ भी
पढ़ाऊंगी |
अनुभव
तुम्हें डगमगाने नहीं देगा |
तुम्हारी
ताक़त बन जाएगा |
अनजाने
मे ही सही पर,
सीख
दे जाएगा |
अनुभव
तुम्हें हर मोड़ पर,
सही
पथ दिखाएगा |
तुम्हारी
पहचान को ,
भीतर
से बाहर लाएगा |
अनुभव
वह रहस्य जो
साया
बन सदा साथ निभाएगा
और अंधकार मे,
प्रकाश
बन जाएगा |
अनुभव
जब रोशनी बन,
अंतर्मन
में बस जाता है
|
तो भीतर किसी कोने
में,
ज्ञान
का दीप जलाता है
|
वो ज्ञान जो जीवन का
सार है |
वो ज्ञान जो अपरंपार है
|
वो ज्ञान जो, ब्रह्मांड मे
समाया है,
अनुभव
उसी का साया है
|
अनुभव
अदृश्य शक्ति है |
अनुभव अज्ञानता से विरक्ति है |
22 जन॰ 2022
उधेड़ -बुन
उधेड़ -बुन
त्योहारों का मौसम अर्थात सेल- फेस्टिवल सेल के नाम पर जितना भारतीय जनता लुटती है या फिर यूं कहें कि
उन्हें लूटा जाता है, ऐसा शायद ही कहीं और होता होगा |
एक जादू सा प्रभाव डालता है- सेल शब्द | कानों में गूंजते ही कुछ दिमाग में हलचल होने लगती है और ना
चाहते हुए भी कदम बढ़ ही जाते हैं- सेल दर्शनार्थ |
मुझे याद है जब छोटे थे तो बड़े बहन- भाई के कपड़ों को ललचाई नजरों से देखते थे , कि अगले साल तक
यह कपड़ा हमारा होगा | कपड़ा अच्छे से जब तक किस नहीं जाता था- किसी ना किसी के तन पर विराजमान
रहता ही था | मतलब एक बार कोई नया कपड़ा ले लिया तो उसका अच्छा प्रयोग करना हमारे घर वाले बखूबी जानते थे |
और एक मजेदार बात- हमारे कपड़ों की सिलाई भी घर पर ही की जाती थी | फिटिंग क्या होती है- इतनी समझ कहां थी-
बस रंग/ प्रिंट देख कर ही मोहित हो जाते थे |
हां, तो मैं बात कर रही थी सिलाई की | सिलाई करते समय अंतर को इतना कपड़ा छोड़ा जाता था कि- कहीं कपड़ा खुला
करने की आवश्यकता पड़ी तो आसानी से किया जा सके और कम से कम दो- तीन साल तक तो आसानी से पहना जा
सके मतलब कपड़ों को खुला करने और सालों तक पहनने की गुंजाइश रखी जाती थी और सच में पहना भी जाता था |
तब कोई वार्डरोब तो होते नहीं थे, गिनती के कपड़े होते थे और वह भी अगर आप घर में छोटे हो तो पुराने ही |
तब बड़ों के उतरे कपड़े ही हमारा ब्रांड होता था | वह भी क्या दिन थे | कपड़ों की उधेड़बुन में कब बड़े हो गए और
जीवन कठिन पथ पर कब आगे बढ़ गए, पता ही नहीं चला | जिम्मेदारियों के बोझ तले ऐसा दवे के उन बचपन की यादों
को सहेजने का समय कहां मिला | ना ही हम उन कपड़ों को सहेज पाए, पाएं जिन्हें पहनने के लिए निगाहें भाई-बहन
पर ही टिकी रहती थी | अनजाने में ही सही लेकिन हम उनके और अपने बड़े होने की कामना करते थे |
सब छूट गया | वह घर की पुरानी सिलाई मशीन एक कोने में सिसकती है | कभी कभार उसके ऊपर जमी धूल को साफ
करके उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट कर देते हैं | आज उन्हीं कपड़ों की जगह महंगी ब्रांडेड कपड़ों ने ले ली है |
समय का अभाव हमें रेडीमेड की तरफ खींच ले गया | सब कुछ सिला सिलाया और ब्रांड न्यू | एक नया एहसास,
आत्मविश्वास और बहुत सारे विकल्प | मशीन को तो जैसे भूल ही गए | मेहनत जो कम हो गई थी, हां जेब थोड़ी ज्यादा
ढीली करनी पड़ी |
सोच फिर भी वही थी, बस मशीन ही छुट्टी थी , घर की परंपरा नहीं | छोटे बहन भाई आज भी छोटे ही थे | उनके हिस्से
आप भी पुराने ही कपड़े आ रहे थे, बस वह मां के सिले हुए ना थे | मशीन का प्रयोग अब कभी कभार रेडीमेड कपड़ों
को खुला जा तंग करने के लिए ही होता था | मां का काम थोड़ा आसान हो गया था | रेडिमेड खरीदते समय एक चीज का विशेष ध्यान रखा जाता था कि- अंदर अरज कितना है ताकि कल को खुला करने
में परेशानी ना हो समय के साथ साथ सब बदल गया | रेडीमेड कपड़ों की जगह ब्रांडेड रेडीमेड कपड़ों ने ले ली |
बस जाओ, पसंद करो और खरीद कर ले आओ | हम होशियार थे | महंगे कपड़े अवश्य खरीदें लेकिन सोच रही थी
कि उसे खुला कर दो चार साल तक आराम से पहनने की गुंजाइश हो |
हम हम साथ थे तो ब्रांड वाले हमसे भी ज्यादा होशियार निकले | हम अगर ऐसे ही एक कपड़े को सालों तक पहनेंगे
तो बिक्री क्या खाक होगी | उन्होंने हमसे हमारी सबसे पसंदीदा चीज (अंदर का अरज )हमसे छीन ली और कपड़े को
खुला करने की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी |
हम भी कहां कम थे | अपना होशियार दिमाग लगाया और परंपरा का निर्वाह करते हुए कपड़ा एक- दो साइज बड़ा
ही खरीदा और पुरानी तकनीक अपनाते हुए उसे थोड़ा तंग किया ,पहन लिया और फिर खुदा -ना- रास्ता आप की
फिटिंग गड़बड़ाई तो अपनी लगाई हुई सिलाई खोल दो |
हमारी यह होशियारी भी ज्यादा देर तक काम ना आई | अब ब्रैंडिड महंगे वाले कपड़ों के डिजाइन ऐसे बनाने लगे कि
आप उसे खुला या तंग कर ही नहीं सकते | बस आप अपना साइज का खरीदो और अपने आपको फिट रखो| थोड़ी सी
भी शारीरिक व्यवस्था चरमराई तो आपका ब्रांडेड कपड़ा गया भाड़ में- वह किसी काम का नहीं | मजबूरन आप उसे
किसी न किसी को दान में देने पर मजबूर हो जाते हैं और आपके प्रिय कपड़े आपके हाथों से निकल जाते हैं |
उन्हें सहेजने की कोई गुंजाइश बाकी नहीं रहती |
आज जब मां ने कहा कि कपड़े खरीदते हुए आज का ध्यान रखा कर, तो मुझे ना जाने क्यों वह छोड़ चुके सारे
रिश्ते नाते याद आ गए जो ब्रांडेड कपड़ों की तरह हर दिन नया रूप ले रहे हैं |
कपड़ों की उधेड़ -बुन में हमारे रिश्ते कहीं उलझ कर रह गए हैं, जिन्हें सहेजने की गुंजाइश भी बाकी नहीं रहती है |
18 नव॰ 2021
कृषि क़ानून वापस - ये तो होना ही था
ये तो होना ही था साहब,
खुद का ही जाल था,
बस यही तो कमाल था,
जन-जन का ध्यान भटकाना था,
किसी तरह समय बिताना था |
करते भी क्या ?
विकास के नाम पर ,
बस, ठेंगा था दिखाने को |
और दिख गया किसान,
आंदोलन पर बैठाने को |
ऐसा चक्रव्यूह बुना,
कर दिया सब कुछ अनसुना ,
अब मगरमच्छ केआँसू बहाएँगे |
न जाने कितने जुमले सुनाएँगे,
जनता को हसाएँगे,
वोट बैंक बढ़ाएँगे |
अगले पाँच साल हेतु,
सपने दिखाएँगे |
-----------------------
----------------------
अब देखना कोरोना भी,
ख़त्म हो जाएगा |
अगले चुनाव तक सब,
सामान्य हो जाएगा |
अब बस भाषण,
मीडिया मे छाएगा |
विकास बेचारा ,
किसी कोने मे छुपकर,
आँसू बहाएगा |
जै हिंद
28 जुल॰ 2020
विदाई
माँ-बाप के होते वो कभी , पराई नहीं होती |
हर बार वही ममता , वही तो भाव आता है ,
पुत्री का अपने घर से , कैसा गहरा नाता है ?
हँसती है खिलखिला के , जब खुशियाँ महकती हैं |
यों लगे बगिया में ज्यों , चिड़ियाँ चहकती हैं |
परियों सी लाडली वो , पापा की दुलारी है |
उसकी हँसी में बस गई , कायानात सारी है |
कैसे पराई एक ही , दिन में हो जाती है ?
बस यही इक बात , मन ही मन रूलाती है |
ये तो शिष्टाचार है , और दुनियादारी है ,
वर्ना पुत्री घर पिता के , किसपे भारी है ?
जब भी घर से जाए , कुछ आँखें बरसती हैं |
पुत्री के बिन पापा की , आँखें तरसती हैं |
फ़र्क बस इतना कि , वो रस्में नहीं होतीं ,
सात फेरों वाली फिर , कस्में नहीं होतीं |
वर्ना ब्याह के बेटी , जब-जब घर पे आती है |
माता-पिता की आँखों मे , फिर खुशियाँ लाती है |
हर बार होए पुत्री की बस एक ही बार , विदाई नहीं होती |
माँ-बाप के होते वो कभी , पराई नहीं होती |
हर बार वही ममता , वही तो भाव आता है ,
पुत्री का अपने घर से , कैसा गहरा नाता है ?
हँसती है खिलखिला के , जब खुशियाँ महकती हैं |
यों लगे बगिया में ज्यों , चिड़ियाँ चहकती हैं |
परियों सी लाडली वो , पापा की दुलारी है |
उसकी हँसी में बस गई , कायानात सारी है |
कैसे पराई एक ही , दिन में हो जाती है ?
बस यही इक बात , मन ही मन रूलाती है |
ये तो शिष्टाचार है , और दुनियादारी है ,
वर्ना पुत्री घर पिता के , किसपे भारी है ?
जब भी घर से जाए , कुछ आँखें बरसती हैं |
पुत्री के बिन पापा की , आँखें तरसती हैं |
फ़र्क बस इतना कि , वो रस्में नहीं होतीं ,
सात फेरों वाली फिर , कस्में नहीं होतीं |
वर्ना ब्याह के बेटी , जब-जब घर पे आती है |
माता-पिता की आँखों मे , फिर खुशियाँ लाती है |
हर बार होए विदाई , जब बेटी घर पे आती है |
, जब बेटी घर पे आती है |
पुत्री कभी पराई न होना ,
दुनिया का दस्तूर है ,
हम भी बहुत मजबूर हैं ,
देनी तुम्हें विदाई है ,
वही शुभ घड़ी आई है ,
नव-जीवन की उषा में तुम
हमें देख मत रोना ,
पुत्री कभी ...........
तेरे अश्रू छलक गए तो ,
हम भी रोक न पाएँगे |
अपनी प्यारी बिटिया को हम
नहीं विदा कर पाएँगे |
बिन तेरे सूना आँगन ,
होगा खाली हर कोना
पुत्री कभी................
नए घर में जाओगी तुम ,
नव -संसार बसाने को ,
नई होगी ज़िम्मेदारी ,
दुनिया की रीत निभाने को ,
पुत्री से पत्नी का सफ़र
नहीं होगा खेल-खिलोना
पुत्री कभी ................
याद हमें वो पल आएँ ,
तू जब गोदी में आई थी ,
नन्हे-नन्हे हाथों में भर ,
ढेरों खुशियाँ लाई थी |
तेरी किलाकारी सुन सुन
न रात-रात भर सोना |
पुत्री कभी ..............
नन्हे-नन्हे कदमों से तू
पूरे घर में चलती थी ,
पायल की छनकार मे तू
जब गिरती और संभलती थी
माँ की गोदि में आकर ,
मीठी निद्रा में सोना |
पुत्री कभी ..................
छोटे-छोटे खेल-खिलौने
छोटी थी गुड़िया रानी ,
कभी सजाती स्वयम् हाथ से
घर-गृहस्थी की बन रानी
आज वही सच में दिन आया
पूरा स्वपन सलोना ,
पुत्री कभी .........
खुशी-खुशी जाओ घर अपने
पूरे हों तेरे सब सपने ,
अपने सपनों की दुनिया को
सच में अभी संजोना
द्वार खुले मेरे दिल के ,
तुम उससे विदा न होना
पुत्री कभी ..............