5 दिस॰ 2009
जमाना अब भी वही है
दादा-दादी,नाना-नानी,माँ-बाप
और
अब कहते हैं
अपने बच्चों से
कि
जमाना बदल गया है
बदल गई है
वो तस्वीर,
वो सोच,
वो रहन-सहन,
वो ख़ान-पान,
वो दोस्त,
वो सभ्यता,
वो संस्कृति,
वो रीति-रिवाज़
सब कुछ.............
सब कुछ वैसा नहीँ ,
जैसा था.............
जमाना बदल गया है
लेकिन...............
लेकिन आज
रास्ते में चलते
एक गली के अंदर
सरकारी प्राइमरी स्कूल
की टूटी हुई इमारत
इमारत के बाहर
वही छोटी सी दुकान
थोड़े से बेर,
बर्फ का गोला,
थोड़ी सी टॉफियाँ
वो नंगे पाँव
अर्धनग्न बच्चे
और बच्चों का झगड़ा
चीख-चीख कर
कर गये बयान कुछ इस तरह
अरे, पीछे मुड़कर देखो
कुछ भी तो नहीँ बदला
देखो....................
वो ग़रीबी
वो बेकारी
वो दर्द
वो झगड़े
वो नफ़रत
वो लालच
वो भूख
---------------
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सब कुछ बिल्कुल वैसा ही
और भी देखो...........
वो प्यार
वो सभ्यता
वो संस्कार
वो माहौल
वो माँ की ममता
वो बाप का स्नेह
वो रीति-रिवाज़
वो दिन-त्योहार
वो खुशी-गम
वो सुख-दुख
सब कुछ बिल्कुल वैसा ही
कुछ बदला..............?
कुछ बदला है तो तुम
केवल तुम..........
तुम्हारा रहन-सहन
तुम्हारा माहौल
तुम्हारी सोच
बस दूर हो गये हो हम सबसे
केवल तुम...............
तुम ही बढ़ गये आगे
और
नही देखा कभी
पीछे मुड़कर
केवल तुम ही छोड़ चले
वो गलियाँ
वो लोग
वो माहौल
देखने लगे आगे
और बढ़ते गये
अपनी ही धुन में
नहीँ देखा..............
नहीँ देखा कभी
कोई पीछे है तुम्हारे
और वो भी...............
उसी पथ के राही है
जहाँ से तुम गुज़रे हो कभी
और
तुम्हारे पीछे है
लंबी पंक्ति..................
जिसका कोई अंत नहीँ
देखो कभी पीछे मुड़कर
और देखो......................
नज़र की गहराई से
तो पायोगे
सब कुछ बिल्कुल वैसा ही
जैसा............
पीछे छोड़ गये हो तुम
कुछ भी नहीँ बदला
जमाना अब भी वही है
19 नव॰ 2009
अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस पर एक कविता - प्यास
चौराहे पर खडा विचारे
बन्द मार्ग सारे के सारे
मुड जाता है उसी दिशा मे
जिधर से भी कोई उसे पुकारे
न कोई समझ न सोच रही है
बन गई दिनचर्या ही यही है
जिम्मेदारी सिर पर भारी
चलता है जैसे कोई लारी
दूध के कर्ज़ की सुने दुहाई
कभी जीवन सन्गिनी भरमाई
माँगे रखते है कभी बच्चे
बॉस के भी है नौकर सच्चे
हाँ मे हाँ मिलाता रहता
बस खुद को समझाता रहता
करता है उनसे समझौते
जो राहो के पाहन होते
क्या देखे क्या करे अनदेखा?
कौन से करमो का देना लेखा?
बचपन से ही यही सिखाया
जिस माँ-बाप ने तुमको जाया
उनका कर्ज़ न दे पाओगे
भले जीवन मे मिट जाओगे
पत्नी सँग लिए जब फेरे
कस्मे-वादो ने डाले डेरे
दफतर मे बैठा है बॉस
दिखाता रहता अपनी धौस
चाहकर भी न करे विरोध
अन्दर ही पी जाता क्रोध
समझे कोई न उसकी बात
न दिन देखे न वो रात
अपनी इच्छाओ के त्याग
नही है कोई जीवन अनुराग
पिसता है चक्की मे ऐसे
दो पाटो मे गेहुँ जैसे
सबकी इच्छा ही के कारण
कितने रूप करे हैं धारण
फिर भी खुश न माँ न बीवी
क्या करे यह बुद्धिजीवि ?
माँ तो अपना रौब दिखाए
और बीवी अधिकार जताए
एक अकेला किधर को जाए?
किसको छोडे किसको पाए ?
साँप के मुँह ज्यो छिपकली आई
यह् कैसी दुविधा है भाई
छोडे तो अन्धा हो जाए
खाए तो दुनिया से जाए
हर पल ही है पानी भरता
और अन्दर ही अन्दर डरता
पुरुष है नही वो रो सकता है
अपना दुख न धो सकता है
आँसु आँखो मे जो दिखेगा
तो समाज भी पीछे पडेगा
....................
पुरुष है पर नही है पुरुषत्व
अच्छा न आँसुओ से अपनत्व
बहा न सकता अश्रु अपने
न देखे कोई कोमल सपने
दूसरो की प्यास बुझाता रहता
खुद को ही भरमाता रहता
स्वयम तो रहता हरदम प्यासा
जीवन मे बस मिली निरासा
पाला बस झूठा विश्वास
नही बुझी कभी उसकी प्यास
**************************
10 मई 2009
मुझे मां से जलन है ........
अपनी ही मां से
तुम्हारी ममतामई आंखों से
जो मुझे देखने भर से लडने की हिम्मत देती हैं ।
जलन है मुझे तुम्हारी उंगलियो के स्पर्श से
जो बालों को छूते ही नई दुनिया का अहसास कराती हैं
जलन है मुझे तुम्हारी गोदि से
जिसमें सर रखते ही हर गम भूल जाती हूं
जलन है मुझे तुम्हारी सहनशीलता से
जो मुझे कितनी बार बेबाक बना देती है
जलन है मुझे तुम्हारी विशाल ह्रदयता से
जिसमें न जाने कितने गम दफ़न हैं
जलन है मुझे तुम्हारे संतोष पर
जो तुने अपनी हर चाहत मार दी
जलन है मुझे तुम्हारे उस त्याग पर
जो तुमने मेरी खातिर न जाने कितनी बार किया
जलन है मुझे तुम्हारी उस ममता पर
जो मेरी थोडी सी पीडा को भी पहचान जाती है
जलन है मुझे तुम्हारी उस समझ पर
जो मेरी आवाज में छुपे दर्द को जानती है
हां मां जलती हूं मै तुमसे.......
अपनी ही मां से............
गुस्सा भी हूं तुमसे .......
मुझे तुमने सब सिखाया
फ़िर भी अपने सा न बनाया
क्यों नहीं समझ पाती मै तुम्हारी ही भान्ति
तुम्हारी ममतामई आंखों के पीछे का दर्द
छुपा लेती हो तुम अपने सारे गम
अपनी ममता के पर्दे से
जो मेरी नजर से दूर है बहुत दूर
क्यों नहीं मै तुम्हें अपनी गोदि में लेटा
प्यार भरी उंगलियां चला पाती तुम्हारे बालों में
ताकि तुम भी अनुभव कर सको उस आनन्द को
जो मै अनुभव करती हूं तुम्हारी गोदि में सर रख कर
क्यों नही मै त्याग कर पाती तुम्हारी खातिर
क्यों नहीं मुझमें ऐसी सहनशीलता
कि तुम्हारी हर बात चुपचाप सुन जाऊं
मुझे क्यों न इतना समझदार बनाया मां कि
तुम्हारी ही भांति मै भी पहचान सकूं
तेरी आवाज के पीछे छुपे दर्द को
क्यों मां तुम मेरी हर जिद्द के आगे हार कर भी जीत जाती हो
और मै अपनी हर जिद्द मनवा कर भी हार जाती हूं
क्यों मां , क्यों........?????????
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मुझे मां से जलन है ........
अपनी ही मां से
तुम्हारी ममतामई आंखों से
जो मुझे देखने भर से लडने की हिम्मत देती हैं ।
जलन है मुझे तुम्हारी उंगलियो के स्पर्श से
जो बालों को छूते ही नई दुनिया का अहसास कराती हैं
जलन है मुझे तुम्हारी गोदि से
जिसमें सर रखते ही हर गम भूल जाती हूं
जलन है मुझे तुम्हारी सहनशीलता से
जो मुझे कितनी बार बेबाक बना देती है
जलन है मुझे तुम्हारी विशाल ह्रदयता से
जिसमें न जाने कितने गम दफ़न हैं
जलन है मुझे तुम्हारे संतोष पर
जो तुने अपनी हर चाहत मार दी
जलन है मुझे तुम्हारे उस त्याग पर
जो तुमने मेरी खातिर न जाने कितनी बार किया
जलन है मुझे तुम्हारी उस ममता पर
जो मेरी थोडी सी पीडा को भी पहचान जाती है
जलन है मुझे तुम्हारी उस समझ पर
जो मेरी आवाज में छुपे दर्द को जानती है
हां मां जलती हूं मै तुमसे.......
अपनी ही मां से............
गुस्सा भी हूं तुमसे .......
मुझे तुमने सब सिखाया
फ़िर भी अपने सा न बनाया
क्यों नहीं समझ पाती मै तुम्हारी ही भान्ति
तुम्हारी ममतामई आंखों के पीछे का दर्द
छुपा लेती हो तुम अपने सारे गम
अपनी ममता के पर्दे से
जो मेरी नजर से दूर है बहुत दूर
क्यों नहीं मै तुम्हें अपनी गोदि में लेटा
प्यार भरी उंगलियां चला पाती तुम्हारे बालों में
ताकि तुम भी अनुभव कर सको उस आनन्द को
जो मै अनुभव करती हूं तुम्हारी गोदि में सर रख कर
क्यों नही मै त्याग कर पाती तुम्हारी खातिर
क्यों नहीं मुझमें ऐसी सहनशीलता
कि तुम्हारी हर बात चुपचाप सुन जाऊं
मुझे क्यों न इतना समझदार बनाया मां कि
तुम्हारी ही भांति मै भी पहचान सकूं
तेरी आवाज के पीछे छुपे दर्द को
क्यों मां तुम मेरी हर जिद्द के आगे हार कर भी जीत जाती हो
और मै अपनी हर जिद्द मनवा कर भी हार जाती हूं
क्यों मां , क्यों........?????????
***********************************************
30 अप्रैल 2009
जूते का निशाना
जूते ने अब जो अपना सर उठाया है
पैरों से निकल जो बाहर को आया है
अपनी हस्ती को मिटाया है
तो पूरी दुनिया में छाया है
जिसकी नियति थी पैरों तले रहना
अब बन गया लोकप्रियता का गहना
पैरों से निकाल जूता सभा में चलाते हैं
चन्द पलों मे दुनिया में छा जाते हैं
विद्वान जो काम ताउम्र न कर पाते हैं
वही जूते चंद लमहों में कर जाते हैं
लोकप्रियता का सस्ता और टिकाऊ तरीका
जूता फ़ैंकने का सलीका
मशहूरी की सौ प्रतिशत गारण्टी
जूता न टूटने की वारण्टी
बशर्ते कि जूता फ़ैंक निशानेबाज न हो
वो स्वामी के प्रति दगाबाज न हो
कुछ ही क्षणों में सारा काम हो जाता है
स्वामी और सेवक का नाम हो जाता है
पूरी उम्र जूते घिसाए ,किसी ने न जाना
वही जूता फ़ैंका तो सबने पहचाना
क्यूं हर बार चूकता है जूते का निशाना
या फ़िर आता नहीं जूता चलाना
फ़ैंकने से पहले सीख तो लो चलाना
फ़िर अपनी जूतांदाजी दिखाना
भरी सभा में जूते चलाना
और लगाना विश्वास से निशाना
फ़िर देखना कैसी आफ़त आएगी
जाने किस किस की नियति बदल जाएगी
17 अप्रैल 2009
7 अप्रैल 2009
चुनाव अभियान
चुनाव आयोग ने
चुनाव आचार सन्हिता का बिगुल बजाया
तो
नेता जी के शैतानी दिमाग़ ने
अपना अलग रास्ता बनाया
और
नेता जी को समझाया
अब छोडो मेरा साथ ,मेरा कहना
और कुछ दिन केवल
दिल के अधीन ही रहना
नेता जी
जो कभी-कभी
कविता लिखने का शौंक फरमाते थे
और
कभी-कभी अपने दिमाग़ के कारण
समीक्षक भी कहलाते थे
वही दिमाग
अब नेता जी को समझाता है
अरे !
चुनाव अभियान में
समीक्षक नहीँ
कवि ही काम आता है
कवि हो
तो उसका फायदा क्यो नहीँ उठाते
कुछ ऐसे नारे क्यों नहीँ बनाते
जिसमे हो
कुछ झूठे वादे,कसमे और लारे
जिसमे
फँस जाएँ भोले-भाले लोग बेचारे
बस
कुछ दिन मे तो
चुनाव खतम हो जायेगी
और
तेरी-मेरी फिर से
मुलाकात हो जाएगी
फिर
हम दोनो मिलकर करेंगे राज
और करेंगे दिल के मरीजों का इलाज
नेता जी
घबराये और बोले
तेरे बिना मै क्या कर पाऊँगा?
यूँ ही दिल के हाथो मर जाऊँगा
अरे!
मेरे होते तू क्यों घबराता है?
नेता का दिल भी तो
उसका दिमाग़ ही चलाता है
बस
फरक सिर्फ इतना है
कि दिल को थोड़े दिन्
रखना दिमाग से आगे
और
देखना लोग आएँगे
तुम्हारे पीछे भागे-भागे
बस
उनको दिल कि बातों से
बस में करना
और
दिमाग से नामान्कन भरना
होगा
तो वही जो तुम चाहोगे
पहले भी
लोगो को मूर्ख बनाया
आगे भी बनायोगे
जीतोगे
और तुम्हे सम्मान भी मिल जायेगा
लोगों की मूर्खता का
प्रमाण मिल जायेगा
__________________________
__________________________
__________________________
लेकिन
इस बार नेता जी के
दिमाग़ ने धोखा खाया
लोगो ने अपना दिमाग चलाया
और
नेता जी को
बाहर का रास्ता दिखाया
नेता जी
जो स्वयम को समझते थे
समाज का आईना
अब
स्वयम को
समाज के आईने मे पाया
1 अप्रैल 2009
जीवन एक कैनवस
निरन्तर
भरते रहते अपने रन्ग
बनती -बिगडती
उभरती-मिटती तस्वीरो मे
समय के साथ
परिपक्व होती लकीरो मे
स्याह बालो मे
गहराई आँखो मे
अनुभव से
परिपूर्ण विचारो मे
बदलते
वक़्त के साथ
कभी निखरते
जिसमे
स्माए हो
रन्ग बिरन्गे फूल
कभी
धुँधला जाते
जिस पर
जमी हो हालात की धूल
यही
उभरते -मिटते
चित्रो का स्वरूप
देता है सन्देश
कि
जीवन है एक कैनवस
*************************************
26 मार्च 2009
नही जाना मुझे रवि के पार
या कहें कि होश संभाला है
सुनती आई बडी पुरानी वाणी
एक कवि की जीवन कहानी
जहां रवि नहीं जा पाता है
वहां कवि पहुँच जाता है
बुन लेता है कल्पनाओं की चादर
चढा लेता है भावनाओं का मुल्लमा
गढ लेता है नए शब्द
हृदय के गर्भाश्य मे पाल लेता है
नन्हे शिशु की भान्ति
कोई कोमल सा भाव
सहता है जनन की पीडा और
देता है जन्म नाजुक सी कविता को
फिर छोड देता है अपनी
मासूम कविता रूपी कन्या को
बिन ब्याही माँ की भान्ति ही
दुनिया के रहमो-करम पर
कोई उसे अपनाता है
तो कोई ठुकराता है
पर कवि अपनी मस्ती मे
फिर से नया गीत गाता है
सोचा था मै भी कवि बन जाऊँगी
फिर रवि के उस पार जाऊँगी
पर जैसे ही मैने कदम बढाया
चारों ओर भूखमरी, गरीबी ,बीमारी
बेकारी---को पाया
तो स्वयं ही अपना कदम पीछे हटाया
नहीं कर सकती इन सबका तिरस्कार
नहीं ओढ सकती कल्पनाओं का मुल्लमा
नहीं पहना सकती उनको शब्दों का जामा
छोड दिया है मैने कवि बनने का विचार
नही जाना मुझे किसी रवि के पार
************************************
16 मार्च 2009
नारी-परीक्षा
मत लेना कोई परीक्षा अब
मेरे सब्र की
बहुत सह लिया
अब न सहेन्गे
हम अपने आप को
सीता न कहेन्गे
न ही तुम राम हो
जो तोड सको शिव-धनुष
या फिर डाल सको पत्थरो मे जान
नही बन्धना अब मुझे
किसी लक्षमण रेखा मे
यह रेखाएँ पार कर ली थी सीता ने
भले ही गुजरी वो
अग्नि परीक्षा की ज्वाला से
भले ही भटकी वो जन्गल-जन्गल
भले ही मिला सब का तिरस्कार
पर कर दिया उसने नारी को आगाह
कि तोड दो सब सीमाएँ
अब नही देना कोई परीक्षा
अपनी पावनता की
नही सहना कोई अत्याचार
बदल दो अब अपने विचार
नारी नही है बेचारी
न ही किस्मत की मारी
वह तो आधार है इस जगत का
वह तो शक्ति है नर की
आधुनिक नारी हूँ मै
नही शर्म की मारी हूँ मै
बना ली है अब मैने अपनी सीमाएँ
जिसकी रेखा पर
कदम रखने से
हो सकता है तुम्हारा भी अपहरण
या फिर मै भी दे सकती हूँ
तुम्हे देश-निकाला
कर सकती हूँ तुम्हारा बहिष्कार
या फिर तुम्हे भी देनी पड सकती है
कोई अग्नि परीक्षा
*******************
13 मार्च 2009
महानगर की होली
होली आई होली आई
मुन्ने की नजरें ललचाई
देख पिचकारी और गुलाल
पाया जा घर में धमाल
ले दो मुझको भी गुलाल
करूँगा रंगों से कमाल
माँ ने ला दी एक पिचकारी
पानी ही से भर दी सारी
साथ में दी दी चेतावनी
देखो वेस्ट न करना पानी
साठ रुपये का लीटर बीस
पानी के दाम से निकले चीस
कई बार तो मारे प्यास
पिलाएँ उसे जो आएँ खास
बाथ का पानी अलग मँगवाएँ
दस ही दिन में सम्ब भरवाएँ
एक माह में टैंकर तीन
बरतें पानी ज्यों कोई दीन
देखो जो तुम रंग डारोगे
खुद को और घर गंदा करोगे
रंगों में पानी डालोगे
फिर दीवाल को रंग डालोगे
नष्ट करोगे नहाकर पानी
बिगड़ेगी अपनी बजट कहानी
पेंट के पैसे भरने पडेंगे
मालिक के ताने भी मिलेंगे
दिखाओ तुम भी इमानदारी
पानी की एक ही पिचकारी
समझ लो तुम इसी को रंग
नहीं खेलना दोस्तों के संग
यह है महा-नगर मेरे लाल
उड़ते नहीं हैं यहां गुलाल
कौन कहां और किसकी होली
पैसे की यहां लगती बोली
तुम भी यह समझ जाओगे
रंग न फिर कोई लाओगे
नहीं किसी का कोई हमजोली
यह है महा-नगर की होली
आप इसे कविता/ अकविता , लेख/आलेख , कहानी कुछ भी कह सकते हैं लेकिन मेरे लिए यह महा-नगरीय जीवन की कड़वी सच्चाई है
-सीमा सचदेव
8 मार्च 2009
मै नारी........
नारी दिवस का नारा
१. जब नारी में शक्ति सारी
फिर क्यों नारी हो बेचारी
२. नारी का जो करे अपमान
जान उसे नर पशु समान
३.हर आंगन की शोभा नारी
उससे ही बसे दुनिया प्यारी
४.राजाओं की भी जो माता
क्यों हीन उसे समझा जाता
५.अबला नहीं नारी है सबला
करती रहती जो सबका भला
६.नारी को जो शक्ति मानो
सुख मिले बात सच्ची जानो
७.क्यों नारी पर ही सब बंधन
वह मानवी , नहीं व्यक्तिगत धन
८.सुता बहु कभी माँ बनकर
सबके ही सुख-दुख को सहकर
अपने सब फर्ज़ निभाती है
तभी तो नारी कहलाती है
९.आंचल में ममता लिए हुए
नैनों से आंसु पिए हुए
सौंप दे जो पूरा जीवन
फिर क्यों आहत हो उसका मन
१०.नारी ही शक्ति है नर की
नारी ही है शोभा घर की
जो उसे उचित सम्मान मिले
घर में खुशियों के फूल खिलें
११.नारी सीता नारी काली
नारी ही प्रेम करने वाली
नारी कोमल नारी कठोर
नारी बिन नर का कहां छोर
१२.नर सम अधिकारिणी है नारी
वो भी जीने की अधिकारी
कुछ उसके भी अपने सपने
क्यों रौंदें उन्हें उसके अपने
१३.क्यों त्याग करे नारी केवल
क्यों नर दिखलाए झूठा बल
नारी जो जिद्द पर आ जाए
अबला से चण्डी बन जाए
उस पर न करो कोई अत्याचार
तो सुखी रहेगा घर-परिवार
१४.जिसने बस त्याग ही त्याग किए
जो बस दूसरों के लिए जिए
फिर क्यों उसको धिक्कार दो
उसे जीने का अधिकार दो
१५.नारी दिवस बस एक दिवस
क्यों नारी के नाम मनाना है
हर दिन हर पल नारी उत्तम
मानो , यह न्या ज़माना है
मै नारी.........
मैं नारी सदियों से
स्व अस्तित्व की खोज में
फिरती हूँ मारी-मारी
कोई न मुझको माने जन
सब ने समझा व्यक्तिगत धन
जनक के घर में कन्या धन
दान दे मुझको किया अर्पण
जब जन्मी मुझको समझा कर्ज़
दानी बन अपना निभाया फर्ज़
साथ में कुछ उपहार दिए
अपने सब कर्ज़ उतार दिए
सौंप दिया किसी को जीवन
कन्या से बन गई पत्नी धन
समझा जहां पैरों की दासी
अवांछित ज्यों कोई खाना बासी
जब चाहा मुझको अपनाया
मन न माना तो ठुकराया
मेरी चाहत को भुला दिया
कांटों की सेज़ पे सुला दिया
मार दी मेरी हर चाहत
हर क्षण ही होती रही आहत
माँ बनकर जब मैनें जाना
थोडा तो खुद को पहिचाना
फिर भी बन गई मैं मातृ धन
नहीं रहा कोई खुद का जीवन
चलती रही पर पथ अनजाना
बस गुमनामी में खो जाना
कभी आई थी सीता बनकर
पछताई मृगेच्छा कर कर
लांघी क्या इक सीमा मैने
हर युग में मिले मुझको ताने
राधा बनकर मैं ही रोई
भटकी वन वन खोई खोई
कभी पांचाली बनकर रोई
पतियों ने मर्यादा खोई
दांव पे मुझको लगा दिया
अपना छोटापन दिखा दिया
मैं रोती रही चिल्लाती रही
पतिव्रता स्वयं को बताती रही
भरी सभा में बैठे पांच पति
की गई मेरी ऐसी दुर्गति
नहीं किसी का पुरुषत्व जागा
बस मुझ पर ही कलंक लागा
फिर बन आई झांसी रानी
नारी से बन गई मर्दानी
अब गीत मेरे सब गाते हैं
किस्से लिख-लिख के सुनाते हैं
मैने तो उठा लिया बीडा
पर नहीं दिखी मेरी पीडा
न देखा मैनें स्व यौवन
विधवापन में खोया बचपन
न माँ बनी मै माँ बनकर
सोई कांटों की सेज़ जाकर
हर युग ने मुझको तरसाया
भावना ने मुझे मेरी बहकाया
कभी कटु कभी मैं बेचारी
हर युग में मै भटकी नारी
*********************************
मेरा प्रणाम है पहली नारी सीता को जिसने एक सीमा (लक्ष्मण रेखा ) को तोडकर
भले ही जीवन भर अथाह दुख सहे लेकिन आधुनिक नारी को आजादी का मार्ग दिखा दिया
धन्य हो तुम माँ सीता
तुमने नारी का मन जीता
बढाया था तुमने पहला कदम
जीवन भर मिला तुम्हें बस गम
पर नई राह तो दिखला दी
नारी को आज़ादी सिखला दी
तोडा था तुमने इक बंधन
और बदल दिया नारी जीवन
तुमने ही नव-पथ दिखलाया
नारी का परिचय करवाया
तुमने ही दिया नारी को नाम
हे माँ तुझे मेरा प्रणाम
***************************************
मै नारी.........
नारी दिवस का नारा
१. जब नारी में शक्ति सारी
फिर क्यों नारी हो बेचारी
२. नारी का जो करे अपमान
जान उसे नर पशु समान
३.हर आंगन की शोभा नारी
उससे ही बसे दुनिया प्यारी
४.राजाओं की भी जो माता
क्यों हीन उसे समझा जाता
५.अबला नहीं नारी है सबला
करती रहती जो सबका भला
६.नारी को जो शक्ति मानो
सुख मिले बात सच्ची जानो
७.क्यों नारी पर ही सब बंधन
वह मानवी , नहीं व्यक्तिगत धन
८.सुता बहु कभी माँ बनकर
सबके ही सुख-दुख को सहकर
अपने सब फर्ज़ निभाती है
तभी तो नारी कहलाती है
९.आंचल में ममता लिए हुए
नैनों से आंसु पिए हुए
सौंप दे जो पूरा जीवन
फिर क्यों आहत हो उसका मन
१०.नारी ही शक्ति है नर की
नारी ही है शोभा घर की
जो उसे उचित सम्मान मिले
घर में खुशियों के फूल खिलें
११.नारी सीता नारी काली
नारी ही प्रेम करने वाली
नारी कोमल नारी कठोर
नारी बिन नर का कहां छोर
१२.नर सम अधिकारिणी है नारी
वो भी जीने की अधिकारी
कुछ उसके भी अपने सपने
क्यों रौंदें उन्हें उसके अपने
१३.क्यों त्याग करे नारी केवल
क्यों नर दिखलाए झूठा बल
नारी जो जिद्द पर आ जाए
अबला से चण्डी बन जाए
उस पर न करो कोई अत्याचार
तो सुखी रहेगा घर-परिवार
१४.जिसने बस त्याग ही त्याग किए
जो बस दूसरों के लिए जिए
फिर क्यों उसको धिक्कार दो
उसे जीने का अधिकार दो
१५.नारी दिवस बस एक दिवस
क्यों नारी के नाम मनाना है
हर दिन हर पल नारी उत्तम
मानो , यह न्या ज़माना है
मैं नारी सदियों से
स्व अस्तित्व की खोज में
फिरती हूँ मारी-मारी
कोई न मुझको माने जन
सब ने समझा व्यक्तिगत धन
जनक के घर में कन्या धन
दान दे मुझको किया अर्पण
जब जन्मी मुझको समझा कर्ज़
दानी बन अपना निभाया फर्ज़
साथ में कुछ उपहार दिए
अपने सब कर्ज़ उतार दिए
सौंप दिया किसी को जीवन
कन्या से बन गई पत्नी धन
समझा जहां पैरों की दासी
अवांछित ज्यों कोई खाना बासी
जब चाहा मुझको अपनाया
मन न माना तो ठुकराया
मेरी चाहत को भुला दिया
कांटों की सेज़ पे सुला दिया
मार दी मेरी हर चाहत
हर क्षण ही होती रही आहत
माँ बनकर जब मैनें जाना
थोडा तो खुद को पहिचाना
फिर भी बन गई मैं मातृ धन
नहीं रहा कोई खुद का जीवन
चलती रही पर पथ अनजाना
बस गुमनामी में खो जाना
कभी आई थी सीता बनकर
पछताई मृगेच्छा कर कर
लांघी क्या इक सीमा मैने
हर युग में मिले मुझको ताने
राधा बनकर मैं ही रोई
भटकी वन वन खोई खोई
कभी पांचाली बनकर रोई
पतियों ने मर्यादा खोई
दांव पे मुझको लगा दिया
अपना छोटापन दिखा दिया
मैं रोती रही चिल्लाती रही
पतिव्रता स्वयं को बताती रही
भरी सभा में बैठे पांच पति
की गई मेरी ऐसी दुर्गति
नहीं किसी का पुरुषत्व जागा
बस मुझ पर ही कलंक लागा
फिर बन आई झांसी रानी
नारी से बन गई मर्दानी
अब गीत मेरे सब गाते हैं
किस्से लिख-लिख के सुनाते हैं
मैने तो उठा लिया बीडा
पर नहीं दिखी मेरी पीडा
न देखा मैनें स्व यौवन
विधवापन में खोया बचपन
न माँ बनी मै माँ बनकर
सोई कांटों की सेज़ जाकर
हर युग ने मुझको तरसाया
भावना ने मुझे मेरी बहकाया
कभी कटु कभी मैं बेचारी
हर युग में मै भटकी नारी
*********************************
मेरा प्रणाम है पहली नारी सीता को जिसने एक सीमा (लक्ष्मण रेखा ) को तोडकर
भले ही जीवन भर अथाह दुख सहे लेकिन आधुनिक नारी को आजादी का मार्ग दिखा दिया
धन्य हो तुम माँ सीता
तुमने नारी का मन जीता
बढाया था तुमने पहला कदम
जीवन भर मिला तुम्हें बस गम
पर नई राह तो दिखला दी
नारी को आज़ादी सिखला दी
तोडा था तुमने इक बंधन
और बदल दिया नारी जीवन
तुमने ही नव-पथ दिखलाया
नारी का परिचय करवाया
तुमने ही दिया नारी को नाम
हे माँ तुझे मेरा प्रणाम
***************************************
5 मार्च 2009
हुआ क्या जो रात हुई
नई कौन सी बात हुई
दिन को ले गई सुख की आँधी,
दुखों की बरसात हुई
पर क्या दुख केवल दुख है,
बरसात भी तो अनुपम सुख है
बढ़ जाती है गरिमा दुख की,
जब सुख की चलती है आँधी
पर क्या बरसात के आने पर,
कहीं टिक पाती है आँधी
आँधी एक हवा का झोंका,
वर्षा निर्मल जल देती
आँधी करती मैला आँगन,
तो वर्षा पावन कर देती
आँधी करती सब उथल-पुथल,
वर्षा देती हरियाला तल
दिन है सुख तो दुख है रात,
सुख आँधी तो दुख है बरसात
दिन रात यूँ ही चलते रहते ,
थक गये हम तो कहते-कहते
पर ख़त्म नहीं ये बात हुई,
हुआ क्या जो रात हुई
27 फ़र॰ 2009
एयरो इण्डिया शो की झलकियां
17 फ़र॰ 2009
वह सुंदर नहीँ हो सकती
अपनी ही सोचों में गुम
एक
मध्मय-वर्गीय परिवार की लड़की
सुशील
गुणवती
पढ़ी-लिखी
कमाऊ-घरेलू
होशियार
संस्कारी
ईश्वर में आस्था
तीखा नाक
नुकीली आँखें
चौड़ा माथा
लंबा कद
दुबली-पतली
गोरा-रंग
छोटा परिवार
अच्छा खानदान
शौहरत
इज़्ज़त
जवानी
सब कुछ...........
सब कुछ तो है उसके पास
परंतु
परंतु, वह सुंदर नहीँ हो सकती
क्यों?
क्योंकि..........................
वक्त और हालात के
थपेड़ों के
उसके चेहरे पर निशान हैं
10 फ़र॰ 2009
मुझे जीने दो
१.स्रष्टा की भी जननी जो
क्यों उपेक्षित कन्या वो
२.बेटी कुदरत का उपहार
न करो उसका तिरस्कार
३.जो बेटी को दे पहचान
माता-पिता वही महान
४.बेटी का जीवन बचाओ
मानव दुनिया मेंकहलाओ
५.पुत्रों से पुत्री बढ़कर
माता-पिता की करे फिक्र
करती सच्चे दिल से प्यार
फिर उसका हो क्यों तिरस्कार
६.जीने का उसको भी अधिकार
चाहिए उसे थोडा सा प्यार
जन्म से पहले न उसे मारो
कभी तो अपने मन में विचारो
शायद वही बन जाए सहारा
डूबते को मिल जाए किनारा
७.हर क्षेत्र में लडंकी आगे
फिर क्यों हम लड़की से भागें
८.दुनिया मे उसे आने तो दो
चैन से उसको जीने तो दो
करेगी वो भी ऊँचा नाम
आएगी दुनिया के काम
९.अति उत्तम बेटी का धन
कर देती मन को पावन
१०.जिस घर मे बेटी आई
समझो स्वयं लक्ष्मी आईं
११.बेटी तो घर में ज़रूरी है
वो नहीं कोई मजबूरी है
१२.बेटी-बेटे का त्यागो भ्रम
लेने दो बेटी को जन्म
१३.बेटों से भी बेटी भली
क्यों जन्म से पूर्व उसकी बलि
१४.बेटी को सम्मान दो
जीवन उसको दान दो
मुझे
जीना है
मुझे जीने दो
हे जननी
तुम तो समझो
मुझे दुनिया मे आने तो दो
तुम
जननी हो माँ
केवल एक बार तो
मान लो मेरा भी कहना
नही
सह सकती मैं
और बार-बार अब
और नही मर सकती मैं
कोई
तो मुझे
दे दो घर में शरण
अपावन नही हैं मेरे चरण
क्यों
हर बार मुझे
तिरस्कार ही मिलता है?
मेरा आना सबको ही खलता है
हे जनक
मैं तुम्हारा ही तो
बोया हुआ बीज हूँ
नही कोई अनोखी चीज़ हूँ
बोलो
मेरी क्या ग़लती है?
क्यों केवल मुझे ही
तुम्हारी ग़लती की सज़ा मिलती है?
कब तक
आख़िर कब तक
मैं यह सब सहून्गी?
दुनिया में आने को तड़पती रहूंगी?
क्या
माँ का गर्भ ही
है मेरा सदा का ठिकाना?
बस वहीं तक होगा मेरा आना जाना?
क्या
नही खोलूँगी मैं
आँख दुनिया में कभी?
क्यों निर्दयी बन गये हैं माँ बाप भी?
कहाँ तक
चलेगी यह दुनिया
बिना बेटी के आने से?
बेटी बन कर मैने क्या पाया जमाने से?
मैं
दिखाऊंगी नई राह
दूँगी नई सोच जमाने को
मुझे दुनिया में आने तो दो
मैं
जीना चाहती हूँ
मुझे जीने तो दो
****************************
2 फ़र॰ 2009
झोंपड़ी में सूर्य-देवता
पुल के नीचे
सड़क के बाजु में
तीलो की झोंपड़ी के अंदर
खेलते.............
दो बूढ़े बच्चे
एक नग्न और
दूजा अर्ध-नग्न
दीन-दुनिया से बेख़बर
ललचाई नज़रों से
देखते.........
फल वाले को
आने-जाने वाले को
हाथ फैलाते.....
कुछ भी पाने को
फल,कपड़े,जूठन,खाना
कुछ भी.........
सरकारी नल उनका
गुस्लखाना
और रेलवे -लाइन.....पाखाना
चेहरे पर उनके केवल अभाव
सर्दी-गर्मी का उन पर
नहीँ कोई प्रभाव
अकेले हैं बिल्कुल
कुछ भी तो नहीँ
उनके अपने पास
नहीँ करते वे किसी से
हस्स कर बात
और झोंपड़ी से
झाँकता सूर्य देवता
मानो दिला रहा हो
अहसास........
कोई हो न हो
लेकिन
मैं तो हूँ
और हमेशा रहूँगा
तुम्हारे साथ
तब तक............
जब तक है
तुम्हारा जीवन
यह झोंपड़ी
और ग़रीबी का नंगा नाच........
**********************************
24 जन॰ 2009
अज्ञात कन्या का मर्म
भिनभिनाती मखियाँ
कुलबुलाते कीडे
सूँघते कुत्ते
कचरादान के गर्भ मे
कीचड़ से लथपथ
फिर से पनपी
एक नासमझ जिन्दा लाश
छोटे-छोटे हाथों से
मृत्यु देवी को धकेलती
न जाने कहाँ से आया
दुबले-पतले हाथों में इतना बल
कि हो गए इतने सबल
जो रखते है साहस
मौत से भी जूझने का
शायद यह बल
वह अहसास है
माँ के पहले स्पर्श का
वह अहसास है
माँ की उस धड़कन का
जो कोख मे सुनी थी
चीख-चीख कर कहती है
नन्ही सी कोमल काया....
मैं जानती हूँ माँ
मैं पहचानती हूँ
तुम्हारी ममता की गहराई को
तुम्हारे स्नेह को
तुम्हारे उस अनकहे प्यार को
महसूस कर सकती हूँ मैं
भले यह दुनिया कुछ भी कहे
मैं इस काबिल नहीं कि
सब को समझा सकूँ
तुम्हारी वो दर्द भरी आह बता सकूँ
जो निकली थी तेरे सीने की
अपार गहराई से
मुझे कूडादान में सबसे छुप-छुपा कर
अर्पण करते समय
यह तो सदियों से चलता आ रहा सिलसिला है
कभी कुन्ती भी रोई थी
बिल्कुल तुम्हारे ही तरह
मैं जानती हूँ माँ
तुम भी ममतामयी माँ हो
न होती
तो कैसे मिलता मुझे तुम्हारा स्पर्श
तुम तो मुझे कोख मे ही मार देती
नहीं माँ ! तुम मुझे मार न सकी
और आभारी हूँ माँ
जो एक बार तो
नसीब हुआ मुझे तुम्हारा स्पर्श
उसी स्पर्श को ढाल बना कर
मैं जी लूँगी
माथे पर लगे लाँछन का
जहर भी पी लूँगी
शीतल छाया न सही
तुम्हारे सीने से निकली
ठण्डी आह का तो अहसास है मुझे
धन्य हूँ मै माँ
जो तुमने मुझे इतना सबल बना दिया
आँख खुलने से पहले
दुनियादारी सिखा दिया
इतना क्या कम है माँ
कि तूने मुझे जन्मा
हे जननी!
अवश्य ही तुम्हारी लाचारी रही होगी
नहीं तो कौन चाहेगी
अपनी कोख में नौ माह तक पालना
कुत्तो के लिए भोजन
इसीलिए तो दर्द नहीं सहा तुमने
कि दानवीर बन कर
कुलबुलाते कीड़ों के भोजन का
प्रबन्ध कर सको
नहीं! माँ ऐसी नहीं होती
मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं
मैं ही अभागी
तुम्हारी कोख में न आती
आई थी तो
तुम्हें देखने की चाहत न करती
बस इसी स्वार्थ से
कि माँ का स्नेह मिलेगा
जीती रही, आँसू पीती रही
एक आस लिए मन में...
स्वार्थ न होता
तो गर्भ में ही मर जाती
तुम्हें लाँछन मुक्त कर जाती
किसी का भोजन भी बन जाती
पर यह तो मेरे ही स्वार्थ का परिणाम है
कि बोझ बन गई मैं दुनिया पर
कलंक बन गई तेरे माथे पर
कुत्तों, कीड़ों या चीलों का
भोजन न बन सकी
और बन गई एक अज्ञात कन्या
अज्ञात कन्या
19 टिप्पणी:
संगीता पुरी said...
राष्ट्रीय बालिका दिवस पर बहुत अच्छी कतवता प्रस्तुत की है आपने....;आभार....सभी कन्याओं को उनके बेहतर भविष्य के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएं।
January 24, 2009 12:49 PM
Divya Prakash said...
कार्टून बहुत अच्छा लगा मुझे और कविता की ही तेरह बहुत मार्मिक है.....
वास्तव में अभी भी बहुत लोगो की मानसिकता लड़कियों को लेकर,दकियानूसी ही है ..
एक फिल्म आई थी "मात्रभूमि - A Nation without women "
मैं सभी को कहूँगा की एक बार ये फिल्म भी जरुर देखें ....बहुत दिनों तक ये फिल्म आपको परेशान करती रहेगी ...
January 24, 2009 1:17 PM
anuradha srivastav said...
बेहद मार्मिक व संवेदित करती कविता। चित्र भी कविता की तरह ही प्रभावी है।
January 24, 2009 1:28 PM
रजनीश के झा (Rajneesh K Jha) said...
कविता और कार्टून के सहारे भ्रूण ह्त्या और कन्या पर मार्मिक प्रस्तुतिकरण, लेखिका और चित्रकार दोनों को बधाई, और सिर्फ़ शब्द नही जरुरत एक दृढनिश्चय की और उस पर अमल की. आगे हमें ही तो आना है.
धन्यवाद
January 24, 2009 1:35 PM
चारु said...
आँखों में आँसू ला दिया आपकी कविता ने....
और मनु जी आपके कार्टून ने तो दिल दहला दिया।
January 24, 2009 2:48 PM
manu said...
Hindi Tamil Telugu Kannada Malayalam Toggle between English and Hindi using Ctrl + g
कविता वाकई हौलनाक है...रोंगटे खड़े कर देने वाली.....
एक अपील नियंत्रक जी से...की इस तरह के काम के लिए कुछ समय अधिक दिया करें ...क्यूंकि समय की कमी...बिजली की किल्लत के कारण रात रात जागना पड़ता है...और अगर इस काम को किसी वजह से नहीं कर paataa to khud se bahut sharmindaa hotaa.... maaf kijiye translation me dikkat hai
January 24, 2009 3:10 PM
Dilsher Khan said...
बेहतरीन , वाकई, लाजवाब, कमाल कर दिया आपने... बेहद मार्मिक...!
दिलशेर "दिल"
January 24, 2009 5:16 PM
सीमा सचदेव said...
मनु जी आपका चित्र तो किसी की भी आँखों में आंसू ला दे
मुझे नही मालूम था कि मेरी कविता पर आपको चित्र
बनाने का कार्य सौंपा जाएगा वरना मै कविता कुछ दिन पहले ही
भेज देती मैंने कल ही यह कविता भेजी थी और मै समझ
सकती हूँ कि आपके लिए कितना मुश्किल रहा होगा यह
कार्य उस पर भी जो मार्मिक चित्र आपने बनाया उसके लिए
आप काबिले तारीफ़ है आपका बहुत बहुत धन्यवाद .....सीमा सचदेव
January 24, 2009 5:25 PM
आलोक सिंह "साहिल" said...
गजब का मर्म छुपा है,सीमा जी....
बेहतरीन कविता...
मनु भाई हमेशा की ही तरह इसबार भी बेतखल्लुस..
आलोक सिंह "साहिल"
January 24, 2009 6:11 PM
अवनीश एस तिवारी said...
अफ़सोस की बात तो है लेकिन कोशिश से बदल जायेगा
रचना के लिए बधाई
अवनीश
January 24, 2009 6:39 PM
Harkirat Haqeer said...
सीमा जी और मनु जी आपको ढेरों आशीष इतनी सुन्दर प्रस्तुती के लिए...
January 24, 2009 6:42 PM
सुशील कुमार said...
सीमा सचदेव की कविता“अज्ञात कन्या..” हृ-तंत्र को झंकृत करती हुई संवेदना की गहराई में धँसकर मानव के उस घिनौने कर्म को कायल करती है जहाँ स्त्री-जाति के प्रति घृणा और उपेक्षा का निमर्म भाव वर्तमान हो।कविता में लय और संगति पूर्णत: ‘इनटैक्ट’ है जो कविता को समकालीन कविता का दर्जा देती है।इस कविता की बड़ी विशेषता यह है कि इसकी भाषा की सरलता,भाव की संश्लिष्टता और भावपराणयता कविता को पठनीय बनाती है जो कविता-पाठ के क्रम में पाठक को कविता के अंत तक बाँधे रखती है।
January 25, 2009 5:24 PM
सुशील कुमार छौक्कर said...
बालिका दिवस पर एक अच्छी रचना की प्रस्तुति।
January 25, 2009 6:32 PM
vinay k joshi said...
सीमा जी
मन की गहराई से लिखी गई कविता जो किसी भी संवेदनशील को झकझोरने का माद्दा रखती है ---बधाई
मनुजी
एक चित्र किसी कहानी से अधिक वजन रख सकता है, आपने दर्शाया है --- बधाई
सादर,
विनय के जोशी
January 25, 2009 8:54 PM
rachana said...
सीमा जी
इस कविता का एक एक शब्द बहुत दिनों तक दिल पर दस्तक देता रहेगा .कई बार आप की कविता सोच आंख नम करता रहेगा
उफ़ ये शब्द ये भाव मर्म की सीमा है
सीमा जी बहुत सुंदर लिखा है आप ने
मनु जी आप का चित्र इतना कुछ कहता है की उस पर किताब लिखी जा सकती है .जो जितना चाहे पढ़ ले एसा है
सादर
रचना
January 26, 2009 3:15 AM
Vivek Gupta said...
बेहतरीन
January 26, 2009 6:03 AM
प्रकाश बादल said...
वाह वाह मनु भाई का कार्टून तो अपने आप में एक सटीक और ज़बर्दस्त कविता कह रहा है। भाई मनु! कहाँ से ऐसे ख्याल आजाते हैँ वाह वाह क्या ज़बर्दस्त है। आप एक दिन चमकेंगे। और सब आपकी चमक के आगे फीके होंगे।
कविता भी बहुत अच्छी और सटीक है। कवियत्रि को भी मेरी बधाई।
एक शेर मैं भी बेटियों के कातिलोँ पर ठोंक ही देता हूँ मुझे उम्मीद है कि ये मेरी बददुआ उन सब को लगेगी जिनको मैं चाहता हूँ।
" कोख़ को जो, 'बेटियोँ की कब्र' बना देते हैं।
उन सभी लोगों को हम बददुआ देते हैं।
"
January 26, 2009 11:52 AM
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' said...
माम्र्स्पर्शी रचना,
सटीक प्रभावी चित्र.
कवयित्री और चित्रकार दोनों को साधुवाद.
कविता में शब्दचित्र.
रेखाचित्र में कविता.
January 27, 2009 7:02 PM
dschauhan said...
उनके प्रति अपना भी कुछ फर्ज़ है!
हम पर भी तो उनका भारी कर्ज़ है!!
इसमे फ़र्ज के कर्ज में भी अपनी ही गर्ज है!
आओ मुमकिन कर लें यह भी कोई मर्ज है!!
January 27, 2009 9:15 PM
23 जन॰ 2009
जब तक रहेगा समोसे मे आलू -एक व्यंग्य कविता
रात को सोते हुए
अजीब सा ख्याल कौंध आया
और मैने ................
मिनी स्करट पहने हीर को रोते हुए पाया
मैने पूछा ! यह अश्रुजल क्यों है तुम्हारी आँखों में?
तुमतो एक हो लाखों में
तुम्हे प्यार तो दुनिया भर का मिला है
तुम को तो प्यार की दुनिया में
अच्छा ख़ासा नाम भी मिला है
अमर हो तुम दोनो सदा के लिए
मरे इक्कठे , जिए इक्कठे जिए
अब तुमको कोई अलग नही कर सकता है
फिर क्यों रोती हो तुम ?
तुम्हारा प्यार कभी नही मर सकता है
हीर बोली! बहन तुम सच्च कहती हो
पर मैं पूछती हूँ तुमसे,
किस दुनिया मे रहती हो ?
मैने जब पूछा था रांझा से.......
तुम्हे मुझसे प्यार है कितना?
बोला था सर उठाकर गर्व से....
समोसे मे आलू की उम्र के जितना
मैने कहा ! हाँ सुना तो है मैने भी
कुछ ऐसा ही गाना
पर मुझे आता नही गुन-गुनाना
उसका भी भाव तो कुछ ऐसा ही था
और उसमें भी आलू और समोसा ही था
हीर झल्ला कर बोली...........
सुना है तो पूछती क्यों हो?
दुखती रग पर हाथ रखती क्यों हो?
मेरी समझ मे कुछ ना आया
और फिर से हिम्मत करके मैने हीर को बुलाया
इस बार हीर को गुस्सा आया
फिर भी उसने मेरी तरफ सर घुमाया
मैने कहा ! आलू और समोसे का गाने मे
केवल शब्दों का सुमेल बनाया
परन्तु मेरी समझ में अभी तक यह नही आया
कि तुम्हारे नेत्रों में अश्रुजल क्यों भर आया?
अब हीर लगी फूट-फूट कर रोने
और आँसू से अपने सुन्दर मुख को धोने
अपने रोने का कारण उसने कुछ यह बताया
बहन आज हमने एक रेस्टोरेंट में समोसा ख़ाया
हलवाई ने समोसा बिना आलू के बनाया
और तब से रांझा मुझे नज़र नहीं आया
कदम की आहट से हमने सर घुमाया
मॉडल के साथ ब्रांडेड जींस पहने
रांझा को खड़ा पाया
अब मुझे भी थोड़ा गुस्सा आया
और रांझा को मैने भी कह सुनाया
प्रेमिका को रुलाते हो
तुम्हे शर्म नही आती
एक को छोड़ कर दूसरी को घुमाते हो
यह बात तुम्हे नही भाती
कैसी शर्म ? रांझा बोला .........
मैं आदमी नही हूँ चालू
मैने कहा था हीर से........
मैं तब तक हूँ तेरा ,
जब तक है समोसे मे आलू
जब आलू के बिना समोसा बन सकता
तो मैं अपनी हीर क्यू नही बदल सकता ?
यह समोसे की नई तकनीक ने कमाल दिखाया
और मुझे अपनी नई हीर से मिलाया
इतने मे बाहर के शोर ने मुझे जगाया
और सामने सच में
ऐसी हीरों और रांझो को पाया
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पूछना है मुझे ऐसे प्यार के परिंदो से
कुछ ऐसे ही सामाजिक दरिंदों से
क्या यही रह गई है भारत कि सभ्यता?
और क्या यही है प्यार कि गाथा ?
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21 जन॰ 2009
कौन है वो
वो जो बैठी है चौराहे पर
वो जो ताकती है इधर-उधर
वो जिसकी भूखी है निगाहे
वो जो पी रही पीडा के आँसु
वो जो मिटा रही हवस की भूख
वो जो खुद हरदम भूखी
वो जिसकी मर चुकी सारी चाहते
वो जो जीती है दूसरो की खातिर
वो जिसका कोई मूल्य नही
वो जो अर्धनग्न है ...
शौक से नही मजबूरी से
वो जो देती है अल्ला का वास्ता
वो जिसकी आदत है हाथ फैलाना
वो जो बनाती है हर दिन न्या बहाना
वो जो पेट के लिए पेट दिखाती है
और किसी की
भूख का शिकार हो जाती है
खुद भूखी ही सो जाती है
वो जो सडक किनारे सो जाती है
वो जो बिना बात बतियाती है
वो जो मुँह मे बुदबुदाती है
वो जो भाव हीन है
वो जिसका जीवन रसहीन है
वो जो फटे कपडे से तन ढाँपती है
वो जिससे मृत्यु भी काँपती है
वो जिसने बस मे किया है अपना मन
जो नही कर सकता साधारण जन
वो जिसने सुखा दिया है
अपने आसुँओ का पानी
वो जिसके लिए कोई ऋतु नही सुहानी
सर्दी ,गर्मी,बरसात
सबमे एक सी रहती है
धूप को छाँव और सर्दी को गर्मी कहती है
कौन है वो.............?
कोई माँ ,पत्नी ,बहु या किसी की बेटी
या फिर
पता नही कौन .....?
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20 जन॰ 2009
परछाई
घूरती हुई क्रूर निगाहे
झपट लेने को लालायित
पसरा केवल स्वार्थ
दुर्विचार,आडम्बर
नही बचा इससे कोई घर
बोई थी प्यार की फसल
मिला नफरत का फल
सच्चाई की जमीन को
रौन्दता झूट का हल
मिठास मे छिपा
जानलेवा जहर
भूखी निगाहो मे लालच का कहर
रह गया केवल अकेलापन
कही भी तो नही अपनापन
यह लम्बा सफर काटना अकेले
तन्ग डगर टेढे-मेढे रास्ते
न जाने चलना है
इनपर किनके वास्ते
इधर-उधर आजु-बाजु
कोई भी तो नही साथ
तन्हाई, सन्नाटा सूनापन
दिन भी लगे काली रात
छाया मन मस्तिष्क पर
घोर अँधकार
मिट चुके सारे विचार
पर अचानक
सन्नाटे को चीरती एक ध्वनि
जैसे बोल उठी हो अवनि
कहाँ हो अकेले.......?
यहाँ तो हर कदम पर मेले
देखो मेरी गोदि मे
और देखो मेरे प्रियतम की छाया
जो बनी रहती है सब पर
नही तो देखो अपना ही साया
जो सुख की शीतलता मे भले ही
नज़र न आए
पर गम की तीखी धूप मे
कभी आगे तो कभी पीछे
हर पल साथ निभाए
नही है केवल तन्हाई
तुम्हारे पास है
तुम्हारी अपनी परछाई
15 जन॰ 2009
जीवन एक कैनवस
दिन -रात,सुख-दुख ,खुशी -गम
निरन्तर
भरते रहते अपने रन्ग
बनती -बिगडती
उभरती-मिटती तस्वीरो मे
समय के साथ
परिपक्व होती लकीरो मे
स्याह बालो मे
गहराई आँखो मे
अनुभव से
परिपूर्ण विचारो मे
बदलते
वक़्त के साथ
कभी निखरते
जिसमे
स्माए हो
रन्ग बिरन्गे फूल
कभी
धुँधला जाते
जिस पर
जमी हो हालात की धूल
यही
उभरते -मिटते
चित्रो का स्वरूप
देता है सन्देश
कि
जीवन है एक कैनवस
13 जन॰ 2009
माँ (बारह क्षणिकाएँ)
आजकल माँ
बहुत बतियाती है
जब भी फोन करो
आस-पडोस की भी बाते सुनाती है
२.
न जाने क्यो लगता है
माँ की आँखे नम है
उसे कही न कही
कुछ खो देने का गम है
३.
सुबह सबसे पहले उठ कर
सारा काम निपटाती है
मेरी काम वाली आई कि नही
इसकी चिन्ता लगाती है
४.
कहती है आजकल
पेट खराब है
और मेरी आवाज़ को
हाजमौला बताती है
५.
लगता है अभी आएगी
ले लेगी मुझे गोदि मे
और फिर प्यार से
मेरे सर मे उन्गलियाँ चलाएगी
६.
कई बार
चुप सी रहती है
मुँह से कुछ नही कहती
पर आँखे बहुत कुछ बोलती है
७.
हर रोज
मुझे फोन लगाती है
खाना खाया कि नही
याद दिलाती है
८.
अपनी पीडा के आँसु
पलको मे छुपा कर
मेरी पीडा मुझसे उगलवाती है
९.
खुद तो सारी उम्र
न जाने कितना ही त्याग किया
मेरे छोटे से समझौते को
बलिदान बताती है
१०.
आजकल माँ
सपनो मे आकर
मुझे लोरी सुनाती है
हर जख्म को सहलाती है
११
सबसे प्यारी
सबसे अलग
ममता की मूर्त्त
माँ तुम ऐसी क्यो हो ?
१२.
माँ आजकल
तुम बहुत याद आती हो
जी चाहता है अभी पहुँच जाऊँ
इतना स्नेह जताती क्यो हो ?
*************************
12 जन॰ 2009
मृग-तृष्णा
एक दिन
पडी थी
माँ की कोख मे
अँधेरे मे
सिमटी सोई
चाह कर भी कभी न रोई
एक आशा
थी मन मे
कि आगे उजाला है जीवन मे
एक दिन
मिटेगा तम काला
होगा जीवन मे उजाला
मिल गई
एक दिन मंजिल
धड़का उसका भी दुनिया मे दिल
फिर हुआ
दुनिया से सामना
पडा फिर से स्वयं को थामना
तरसी
स्वादिष्ट खाने को भी
मर्जी से
इधर-उधर जाने को भी
मिला
पीने को केवल दूध
मिटाई
उसी से अपनी भूख
सोचा ,
एक दिन
वो भी दाँत दिखाएगी
और
मर्जी से खाएगी
जहाँ चाहेगी
वहीं पर जाएगी
दाँत भी आए
और पैरो पर भी हुई खडी
पर
यह दुनिया
चाबुक लेकर बढी
लडकी हो
तो समझो अपनी सीमाएँ
नही
खुली है
तुम्हारे लिए सब राहे
फिर भी
बढती गई आगे
यह सोचकर
कि भविष्य मे
रहेगी स्वयं को खोज कर
आगे भी बढी
सीढी पे सीढी भी चढी
पर
लडकी पे ही
नही होता किसी को विश्वास
पत्नी बनकर
लेगी सुख की साँस
एक दिन
बन भी गई पत्नी
किसी के हाथ
सौप दी जिन्दगी अपनी
पर
पत्नी बनकर भी
सुख तो नही पाया
जिम्मेदारियो के
बोझ ने पहरा लगाया
फिर भी
मन मे यही आया
माँ बनकर
पायेगी सम्मान
और
पूरे होंगें
उसके भी अरमान
माँ बनी
और खुद को भूली
अपनी
हर इच्छा की
दे ही दी बलि
पाली
बस एक ही
चाहत मन मे
कि बच्चे
सुख देंगें जीवन मे
बढती गई
आगे ही आगे
वक़्त
और हालात
भी साथ ही भागे
सबने
चुन लिए
अपने-अपने रास्ते
वे भी
छोड गए साथ
स्वयं को छोडा जिनके वास्ते
और अब
आ गया वह पड़ाव
जब
फिर से हुआ
स्वयं से लगाव
पूरी जिन्दगी
उम्मीद के सहारे
आगे ही आगे रही चलती
स्वयं को
खोजने की चिन्गारी
अन्दर ही अन्दर रही जलती
भागती रही
फिर भी रही प्यासी
वक़्त ने
बना दिया
हालात की दासी
मीदो से
कभी न मिली राहत
और न ही
पूरी हुई कभी चाहत
यही चाहत
मन मे पाले
इक दिन दुनिया छूटी
केवल एक
मृग-तृष्णा ने
सारी ही जिन्दगी लूटी
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हिन्दयुग्म में प्रकाशित
सीमा सचदेव
9 जन॰ 2009
कसम से .....वो दर्द हम....
दर्द मे पनपते है गीत ऐसा ही कुछ लोग कहते है
सीने मे कुछ दर्द कसम से जिन्दा दफन रहते है
छोटे से तयखाने मे उमडते है विशाल सागर
कातिल लहरो मे कसम से उसकी कफन बहते है
कहाँ मिलता है ऐसी पीडा को शब्दो का सम्बल
हर पल जिसके कसम से किले बनते औ ढहते है
ना वक़्त ना हालात लगा सकते है उस पर मरहम
वो दिल सीने मे कसम से कितना दर्द सहते है
सच्च कहते है दर्द की कोई सीमा नही होती
वो दर्द हम कसम से सीने मे समेटे रहते है
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6 जन॰ 2009
कुत्तों की सभा- एक हास्य-व्यंग्य कविता
कुत्तो ने इक सभा बुलाई
सबने अपनी समस्या सुनाई
सुन रहा कुत्तो का सरदार
हर समस्या पे होगा विचार
समस्या अपनी लिख कर दे दो
कोई एक फिर उसको पढ दो
हर समस्या का हल ढूढेन्गे
जो भी होगा सब करेन्गे
आई समस्याएँ कुछ ऐसी
चलते फिरते मानव जैसी
समस्या आई नम्बर वन
भौक के बीत गया यह जीवन
भौन्कने मे थे बडी मिसाल
पर नेता ने समझ ली चाल
भौन्कता है वो हमसे ज्यादा
हमे फेल करने का इरादा
समस्या नम्बर आई दो
सुनाई कुत्ते ने रो-रो
अब तो कोई करो इन्साफ
करदो मेरी गलती माफ
मैने इक हड्डी थी उठाई
गली मे लावारिस थी पाई
उठा कर क्या गलती की मैने
अब तक मुझको मिलते ताने
पानी मे दिख गई परछाई
मैने समझा मेरा भाई
भाई समझ कर मै था भौन्का
लोगो को बस मिल गया मौका
लालची कहकर लगे चिढाने
बच्चो को शिक्षा के बहाने
सबने मुझको लालची कह दिया
मैने मुकदमा दायर कर दिया
तब तो था मुझमे भी जोश
पर अब उड गए मेरे होश
नही और मै लड सकता हूँ
न समझौता कर सकता हूँ
लालची सुनकर पक गया हूँ
अब मै सचमुच थक गया हूँ
दिख गई मेरी एक ही हड्डी
पर खाते जो रोज सब्सिडी
उनको कोई लालची नही कहता
उनका चेहरा कभी न दिखता
कहते-कहते भर आया मन
कुत्ते के गिर गए अश्रु कण
पानी पिलाकर चुप कराया
अब तीसरी समस्या को लाया
उठते मेरी दुम पे स्वाल
कैसे है लोगो के ख्याल
बोले कभी सीधी नही होती
बारह साल दबाओ धरती
जो मेरी दुम सीधी होगी
तो क्या जगह को साफ करेगी
बताओ फिर यह कैसे हिलेगी ?
हिलाए बिना न रोटी मिलेगी
मेरी दुम के पीछे पडे है
किस्से करते बडे बडे है
पर नही सीधे होते आप
टेढे हर दम करते पाप
अब सुनो समस्या फोर्
कहते मुझको पकडो चोर
बताओ मै किस-किस को पकडूँ
किस-किस को दाँतो मे जकडूँ
मुझे तो दिखते सारे ही चोर
कहाँ-कहाँ मचाऊँ मै शोर
समस्या नम्बर आई फाईव
देखो समचार यह लाईव
हुई है नई कम्पनी लाँच
बाँध के रखे है कुत्ते पाँच
कहते है कुत्ते है वफादार
बाँधो इन्हे बिल्डिन्ग के द्वार
अन्दर बैठे धोखेबाज
कैसे -कैसे है जालसाज
भौन्के जब उन दगाबाज पे
तो बन जाए उनकी जान पे
अब आई है समस्या सिक्स
कैसे हो जाएँ सबमे मिक्स
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बस करो ! सरदार चिल्लाया
गुस्से मे फरमान सुनाया
पीले से मै हो गया काला
लगा न तेरे मुँह पे ताला
झट से अपना बुलाया सहायक
यह सारे तो है नालायक
तुम एक सॉफ्टवेयर बनवाओ
सारा डाटा फीड कराओ
फिर हम उसमे सर्च करेन्गे
समस्याओ का हल ढूँढन्गे
मेरे पास कभी न आना
पर जब चाहो मेल लगाना
मिनटो मे हल होगी समस्या
नही करोगे कोई तपस्या
इक सी.सी.टी.वी. लगवाओ
मेरे कैबिन मे फिट कराओ
नज़र मै अब हर पल रखुँगा
सबसे ही इन्साफ करूँगा
जो हुआ ! उसको जाने दो
क्षमा अब नादानो को करदो
पर आगे से रहे ध्यान
कुत्तो का न हो अपमान
ऐसी कोई गलती न करना
मेरे सम्मुख कभी न रोना
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इन दोनो तस्वीरों को देख कर ही यह कविता लिखी थी मुझे याद नहीं मैने यह चित्र कहां देखे और सेव कर लिए किसी को कोई आपत्ति हो तो लिखें ,यह चित्र हटा दिए जाएंगे धन्यवाद
5 जन॰ 2009
जब चेहरे से नकाब हटाया मैने
कहते हैं चेहरा दिल की जुबान होता है
दिख जाता है चेहरे पर
जो दिल मे तूफान होता है
एक तूफान के बवंडर को छुपा लिया मैने
अपने चेहरे पे एक नया चेहरा लगा लिया मैने
फिर तूफान पे तूफान आए
मैने भी चेहरे पे चेहरे लगाए
दिखने मे खूबसूरत थे
किसी की खातिर मेरी जरूरत थे
बाहरी खूबसूरती के सम्मुख
असली खूबसूरती बेमानी थी
किसी ने भी वो खूबसूरती
नही पहचानी थी
मै घिरती गई
चेहरों के चक्रवात मे
जो दिखाए थे मैने
किसी को सौगात मे
पर भूला नहीं मुझे
अपना असली रूप
जो सबके लिए खूबसूरत थे
वही चेहरे मुझे लगते थे कुरूप
पर क्या करती मजबूरी थी
चेहरे पे मुस्कान जो जरूरी थी
जिनको हालात की खातिर ओढा था मैने
जिनके कारण वास्तविक्ता को छोडा था मैने
जिनको मैने अपनी शक्ति बनाया था
अपनो की मुस्कान हेतु जिनको अपनाया था
वही चेहरे बन बैठे मेरी कमजोरी
और दिखाने लगे सीना जोरी
हर पल मेरे सम्मुख आते
बात-बात पर
मेरी मजबूरी का अहसास कराते
रह जाती मै आंसू पीकर
क्या करना इन चेहरों संग जीकर
डरती थी , चेहरे हटाऊंगी
तो किसी अपने को ही रुलाऊंगी
अपनों की नम आँखें
नहीं देख पाऊंगी
पर आज सहनशीलता छूट गई
चेहरों की दीवार से
एक ईंट टूट गई
हृदय मे एक झरोखा बन आया
मैने एक नकाब हटाया
जो पर्दे मे कैद थीं
वो आँखें खोल दी
मानस पटल पर दबी हुई
कुछ बातें बोल दीं
थोडा ही सही
पर अजीब सा सुकून पाया मैने
जब एक चेहरे से नकाब हटाया मैने
2 जन॰ 2009
माँ
नि:शब्द है
वो सुकून
जो मिलता है
माँ की गोदि मे
सर रख कर सोने मे
वो अश्रु
जो बहते है
माँ के सीने से
चिपक कर रोने मे
वो भाव
जो बह जाते है अपने ही आप
वो शान्ति
जब होता है ममता से मिलाप
वो सुख
जो हर लेता है
सारी पीडा और उलझन
वो आनन्द
जिसमे स्वच्छ
हो जाता है मन
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माँ
रास्तो की दूरियाँ
फिर भी तुम हरदम पास
जब भी
मै कभी हुई उदास
न जाने कैसे?
समझे तुमने मेरे जजबात
करवाया
हर पल अपना अहसास
और
याद हर वो बात दिलाई
जब
मुझे दी थी घर से विदाई
तेरा
हर शब्द गूँजता है
कानो मे सन्गीत बनकर
जब हुई
जरा सी भी दुविधा
दिया साथ तुमने मीत बनकर
दुनिया
तो बहुत देखी
पर तुम जैसा कोई न देखा
तुम
माँ हो मेरी
कितनी अच्छी मेरी भाग्य-रेखा
पर
तरस गई हूँ
तेरी
उँगलिओ के स्पर्श को
जो चलती थी मेरे बालो मे
तेरा
वो चुम्बन
जो अकसर करती थी
तुम मेरे गालो पे
वो
स्वादिष्ट पकवान
जिसका स्वाद
नही पहचाना मैने इतने सालो मे
वो मीठी सी झिडकी
वो प्यारी सी लोरी
वो रूठना - मनाना
और कभी - कभी
तेरा सजा सुनाना
वो चेहरे पे झूठा गुस्सा
वो दूध का गिलास
जो लेकर आती तुम मेरे पास
मैने पिया कभी आँखे बन्द कर
कभी गिराया तेरी आँखे चुराकर
आज कोई नही पूछता ऐसे
???????????????????
तुम मुझे कभी प्यार से
कभी डाँट कर खिलाती थी जैसे
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